Book Title: Shantinath Purana
Author(s): Asag Mahakavi, Hiralal Jain, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
Publisher: Lalchand Hirachand Doshi Solapur
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श्री शान्तिनाथपुराणम्
सैन्यैः कोलाहलश्चक्रे भग्नशेषेर्मुहुर्मुहुः । तेन क्षणमिवाक्रान्ते शात्रवेणापराजिते ॥८३॥ सोत्साहं सैन्यनिस्वानं श्रुत्वा तेन विमानतः । निर्ययेऽनन्तवीर्येण सिंहेनेव गुहामुखात् ॥ ८४ ॥ स्वदक्षिरणभुजारूढहलेन स ' हलायुधः 1 वर्तमानोऽवधीद्भीष्मं तं शत्रुमपराजितः ॥८५॥ तं हत्वा लीलयाऽपश्यन्दिशोऽपश्यत्ततोऽनुजम् । स्मयमानः स संप्राप्तं मृतं स्वमिव विक्रमम् | ६६ || श्रस्याप्यल्पावशेषस्य रणस्य रणधस्मरम् । प्रसादं मे विधत्स्वेति प्रारणंसोदनुजोऽग्रजम् ॥६७॥ ततो निपातिताशेषधु धैर्यनिधिः स्वयम् । दध रणधुरं भीमां दमितारिः स कथाम् ॥८८॥ प्रशेषितारिचक्रेण चक्रेणेव महीयसा । पराक्रमेण तौ जेतुं महोत्साहपरोऽभवत् ॥ ८६ ॥ पश्चान्निधाय संभ्रान्तां भग्नशेषां पताकिनीम् । पुरो निधाय कीर्ति वा पताकां कुमुदोज्ज्वलाम् ॥१०॥ नृत्यस्क बन्ध वित्रस्तधौरेय विनिवर्तनैः ' तिर्यक्प्रस्थानमारुह्य रथं व्रणितसारथिम् ॥ ६१ ॥ श्रनेकशरसंपात जर्जरीकृतविग्रहान् दृष्ट्वानुव्रजतो धीरानाध्यमाध्यमिति
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ब्रवन् ।।२।। जैसे शत्रु ने अपराजित को दबा लिया हो ॥ ८३|| उत्साह से युक्त सेना का शब्द सुनकर अनन्तवीर्य विमान से इसप्रकार निकला जिसप्रकार गुहा के मुख से सिंह निकलता है || ६४ || रणभूमि में विद्यमान तथा बलभद्रपद के धारक अपराजित ने अपनी दाहिनी भुजा पर आरूढ़ हल के द्वारा उस भयंकर शत्रु को मार डाला ||८५| लीलापूर्वक - अनायास ही शत्रु को मार कर ज्यों ही अपराजित ने दिशाओं की ओर देखा त्यों ही अपने मूर्त-शरीरधारी पराक्रम के समान आये हुए छोटे भाई अनन्तवीर्य को देखा । देखते समय अपराजित मन्दमुसक्यान से युक्त था ।। ८६ ।। जो थोड़ा ही शेष बचा है। ऐसे रण का, रण को समाप्त करने वाला प्रसाद मुझे दीजिये यह कहते हुए छोटे भाई अनन्तवीर्य ने बड़े भाई - पराजित को प्रणाम किया । भावार्य – शत्रु पक्ष के सब लोग मारे जा चुके हैं एक दमितारि ही शेष बचा है अतः इसके साथ युद्ध करने की आज्ञा मुझे दीजिये। मैं दमितारि को मार कर युद्ध समाप्त कर दूंगा - इन शब्दों के साथ अनन्तवीर्य ने अपराजित को प्रणाम किया ।। ८७ ।।
तदनन्तर जिसमें समस्त घोडे अथवा रण का भार धारण करने वाले प्रधान पुरुष मारे जा चुके हैं और जिसमें टूटे फूटे रथ शेष बचे हैं ऐसे भयंकर रण के भार को धैर्य के भण्डार दमितारि ने स्वयं धारण किया ||८८ || जिसने शत्रुत्रों के समूह को नष्ट कर दिया है ऐसे चक्ररत्न के समान महान् पराक्रम के द्वारा वह उन दोनों - प्रपराजित और अनन्तवीर्य को जीतने के लिये बहुत भारी उत्साह से युक्त हुआ ||८||
मरने से शेष बची हुई घबड़ायी सेना को तो उसने पीछे छोड़ा और कीर्ति के समान सफेद पताका को आगे कर प्रस्थान किया ।। ६० ।। उछलते हुए कबन्धों - शिर रहित धड़ों से भयभीत घोड़ों के बार बार लौट पड़ने से जिसकी चाल तिरछी थी तथा जिसका सारथि घावों से जर्जर था ऐसे रथ पर आरूढ़ होकर वह चल रहा था ।। ६१ ।। अनेक बारणों के प्रहार से जिनके शरीर जर्जर कर दिये गये थे तथा जो पीछे पीछे आ रहे थे ऐसे धीर वीर योद्धाओं को देखकर वह कह रहा था कि
१ बलभद्रः २ सेनाम् ।
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