Book Title: Shantinath Purana
Author(s): Asag Mahakavi, Hiralal Jain, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
Publisher: Lalchand Hirachand Doshi Solapur
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श्रीशान्तिनाथपुराणम् ततः सर्वा महाविद्याः प्राप्य 'प्रस्तावमात्मनः । प्राज्ञापयेति जल्पनत्यस्तमीयुरपराजितम् ।।६३॥ अपश्यन्निव ता धीरो युयुधे स पुरा यथा। म महान् कृच्छ्रसाहाय्यं परकीयं प्रतीक्षते ॥६४॥ तथाप्यारेभिरे हन्तु ता विद्यास्तस्य शात्रवम् । प्रभोश्चेष्टासम को वा न कुर्यात्तत्समीपगः ॥६५।। महाबलशतं व्योम्नो निरासे तेन तत्क्षणात । विद्याभिः स्पर्खयेवाने प्रयातैरिव सायकः ॥६६॥ हते महाबले तस्मिन्विस्मितः शत्रुसैनिकः । न मुहुः केवलं दृष्टः स ब्योम्नि विबुधैरपि ॥६७।। ततो विधुतधौतासिरश्मिकल्माषिताम्बराः । रत्नग्रीवादयोऽनेके खेचरेन्द्राः समुद्ययुः ।।६।। स्वविद्यानिमितरुपैर्वतालीमविग्रहैः । ते पिधाय वियद्वीराः परितस्तं डुढौकिरे ॥६॥ प्राग्नेयास्त्रानलज्वालासहस्र स्थगिता दिशः । ते रेजिरे तदा सृष्टाः केनापि सशत हवाः॥७॥ विषानलकरालास्ययोमारोष्यसिताहिभिः । साशोकेन्दीवरोदामदामभिर्वा तवा परैः ।।७१॥ शक्त्यष्टिपरिघप्रासगदामुशलमुद्गरः । कीर्णा तन्मुक्तपतितैरभूदस्त्रमयीव मूः ॥७२॥
अवसर प्रा. कर-आज्ञा करो, ऐसा कहती हुई अपराजित के पास आ गयीं । भावार्थ-समस्त विद्याएँ अपराजित को स्वयं सिद्ध हो गयी और उससे आज्ञा मांगने लगीं ॥६३।। परन्तु धीर वीर अपराजित पहले के समान युद्ध कर रहा था मानों उसने उन विद्याओं की ओर देखा ही न हो। ठीक ही है क्योंकि महान् पुरुष कष्ट के समय दूसरे की प्रतीक्षा नहीं करता है ।। ६४।। यद्यपि अपराजित ने उन विद्याओं की अपेक्षा नहीं की थी तो भी उन्होंने उसके शत्रु को मारना शुरू कर दिया था सो ठीक ही है क्योंकि प्रभु के समीप रहने वाला कौन पुरुष प्रभु की चेष्टा के समान कार्य नहीं करता ? ॥६५॥ विद्याओं के साथ स्पर्धा होने से ही मानों पागे गये हए वारणों के द्वारा उसने सैकड़ों महाबलों को उसी क्षण आकाश से दूर कर दिया था। भावार्थ-महाबल विद्याधर विद्याओं के बल से सैकड़ों रूप बनाकर आकाश में चला गया था और वहाँ से अपराजित पर प्रहार कर रहा था परन्तु अपराजित ने शीघ्रगामी वाणों के द्वारा उन सबको खदेड़ दिया था ।६६।। उस महाबल के मारे जाने पर न केवल आश्चर्यचकित शत्रु सैनिकों ने अपराजित को बार बार देखा था किन्तु आकाश में स्थित देवों ने भी देखा था ।।६७॥
तदनन्तर लपलपाती हुई उज्ज्वल तलवारों की किरणों से आकाश को मलिन करने वाले रत्नग्रीव आदि अनेक विद्याधर राजा युद्ध के लिये उद्यत हुए ॥६८।। अपनी विद्याओं से निर्मित, तीक्ष्ण तथा भयंकर शरीर वाले वेतालों के द्वारा आकाश को आच्छादित कर वे वीर चारों ओर से अपराजित पर टूट पड़े ॥६६॥ आग्नेयास्त्र की हजारों अग्नि ज्वालाओं से दिशाएँ आच्छादित हो गयीं और उनसे वे उस समय ऐसी सुशोभित होने लगीं मानों किसी ने उन्हें विजलियों से सहित ही कर दिया हो ।।७०॥ जिनके मुख विषरूपी अग्नि से भयंकर थे ऐसे काले सो ने आकाश को ऐसा घेर लिया मानो अशोक के लाल लाल पल्लवों से युक्त नील कमलों की बड़ी बड़ी उत्कृष्ट मालाओं ने ही
र लिया हो॥७॥ उन विद्याधरों के द्वारा छोडे जाकर पडे हए शक्ति. अधि. परिघ. भाले. गदा मुशल और मुद्गरों से व्याप्त भूमि अस्त्रों से तन्मय जैसी हो गयी थी ॥७२॥ कितने ही विद्याधरों ने
१ अवसरम् २ स्वरय ३ निराकृतं च
४ सविद्यत:।
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