Book Title: Shantinath Purana
Author(s): Asag Mahakavi, Hiralal Jain, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
Publisher: Lalchand Hirachand Doshi Solapur
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श्रीशान्तिनाथपुराणम्
प्रत्यग्रनिहतारातिशोरिणतारिणतां गदाम् । एको वीक्ष्य रुषा वक्त्रं स्वामिनो मुहरक्षत ॥१६॥ अन्यः प्रोद्गीर्णधौतासिस्फारांशुश्यामलीकृतः। अन्तःप्रदीप्तकोपाग्ने— मधूम्र इवाभवत् ।।२०।। एकस्य हारमध्यस्थपद्मरागांशुरञ्जिते । न व्यज्यते स्म जातोऽपि कोपरागो 'भुजान्तरे ॥२१॥ प्रवतंसीकृताशोकपल्लवच्छद्मना परः । उपकरणं रुषा किञ्चिद्रक्तयोक्त इवाहसत ॥२२॥ स्विन्नालिक:२ सरागाक्षः स्फुरमारणौष्ठपल्लवः । कश्चिद्धन्वन्करौ कोपं रराजाभिनय निव ॥२३॥ स्वालंकारप्रभाजालदुं निरीक्ष्योऽन्तिकस्थितान् । चचाल चालयन् कश्चित्कोपाग्निरिव वारुणः ॥२४॥ इत्युद्यतामिभिः क्रुद्धः खेचरैः सा सभा चिता । ज्वलद्ग्रहगणाकोर्णा द्यौरिवाभूद्भयंकरा ॥२५॥ ततः सिंहासनाभ्यरगंपीठवर्ती महामनाः । उन्नम्योरःस्थलं भूरिरिपुशस्त्रवणाङ्कितम् ॥२६॥ उत्क्वाध्यमिति तान्सन्प्रिक्षोभादुज्झितासनान् । व्यावृत्त्याभिमुखं भर्तु रित्यवादीन्महाबलः ॥२७॥ उद्गीर्णकरवालांशुसारितांसस्थले भुजे । दक्षिणे सति भृत्यानां किं वृथा घूर्णसे रुषा ॥२८॥
वीर अभी हाल मारे हुए शत्रु के रुधिर से लाल गदा को देख क्रोध वश स्वामी का मुख बार बार देख रहा था ॥१६।। ऊपर उभारी हुई निर्मल तलवार की विस्तृत किरणों से जो श्यामवर्ण हो रहा था ऐसा अन्य वीर भीतर जलने वाली क्रोध रूपी अग्नि के धूम से ही मानों मटमैला हो गया था ॥२०॥ किसी एक वीर का वक्षःस्थल हार के मध्य में स्थित पद्मराग मणि की किरणों से लाल हो रहा था। इसलिये क्रोध की लालिमा उत्पन्न होने पर भी प्रकट नहीं हो रही थी ।।२१।। कोई एक वीर ऐसा हँस रहा था मानों कर्णाभरण के रूप में धारण किये हुए अशोकपल्लवों के छल से रक्त लाल वर्ण ( पक्ष में अनुराग से युक्त ) क्रोध रूपी स्त्री ने ही कानों के पास आकर उससे कुछ कहा हो ॥२२॥ जिसका ललाट पसीना से युक्त था, नेत्र लाल थे और अोठ रूपी पल्लव हिल रहा था ऐसा कोई वीर हाथ फटकारता हुप्रा ऐसा सुशोभित हो रहा था मानों क्रोध का अभिनय ही कर रहा हो ॥२३॥ अपने आभूषणों की प्रभा के समूह से जो कठिनाई पूर्वक देखा जाता था तथा जो भयंकर क्रोधाग्नि के समान जान पड़ता था ऐसा कोई वीर समीप में स्थित वीरों को चलाता हुआ चल रहा था ॥२४॥ इसप्रकार तलवार को ऊपर उठाये हुए ऋद्ध विद्याधरों से व्याप्त वह सभा देदीप्यमान ग्रहों के समूह से व्याप्त आकाश के समान भयंकर हो गयी थी ।।२५।।
तदनन्तर जो सिंहासन के निकटवर्ती आसन पर बैठा था ऐसे महामनस्वी महाबल ने शत्रुओं के बहुत भारी शस्त्राघातों से चिह्नित वक्षःस्थल को ऊंचा उठा कर क्षोभ से आसन छोड़ने वाले सब लोगों से कहा कि प्राप बैठिये । पश्चात् राजा दमितारि के सन्मुख मुड़ कर उसने इसप्रकार कहा ॥२६-२७।। जब भृत्यों को दाहिनी भुजा उभारी हुई तलवार की किरणों से कन्धे को व्याप्त कर रही है तब आप व्यर्थ ही क्रोध से क्यों झूम रहे हैं ? भावार्थ-हम सब भृत्यों के रहते हुए आपको कुपित होने की आवश्यकता नहीं है ।।२८।। जगत में छाया हुआ जो क्षत्रिय का तेज अन्य लोगों की
१ वक्षसि २ स्वेदयुक्तललाटः ३ उपविष्टा भवत ४ उद्गीणस्य-उन्नमितस्य करवालस्य कृपाणस्यांशुभिः किरणैः सारितं व्याप्त मंसस्थलं बाहुशिरःस्थलं यस्य तस्मिन् ।
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