Book Title: Shantinath Purana
Author(s): Asag Mahakavi, Hiralal Jain, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
Publisher: Lalchand Hirachand Doshi Solapur
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चतुर्थ सर्ग।
४१ प्रत्यक्षमप्रमाणं च स्थास्नु लोकत्रये भ्रमत् । अविरुद्धात्कथं प्राभूद्विरुद्ध भवतो यशः ।।४।। श्रुतप्रशमगाम्भीर्यशौर्योदार्यसमन्वितः । साधुसख्यरतश्चान्यो भवानिव न दृष्यते ॥५०॥ न्यायवन्तो महान्तश्च 'कुल्यास्तव चिरन्तना: । तन्मार्गप्रस्थितोऽप्येवं किं वृथा तरलायसे ॥५१॥ विशुद्धोभयवंशस्य भवतोऽप्राकृताकृतेः । परस्वमिदमाहतुं कन्यारत्नमसाम्प्रतम् ॥५२॥ केनापि हेतुना गूढमायातस्यात्र केवलम् । प्रच्छन्नमेव यानं ते श्रेयः स्यानोतिशालिनः ॥५३॥ दुर्वृत्तमिदमायातं तवापि भ्रातृचापलात् । संसर्गरण हि जायन्ते गुणा दोषाश्च देहिनाम् ॥५४।। तव व्यवसितं श्रुत्वा सौविदल्लेन कीर्तितम् । संका मे नाजनीत्युक्त्वा अपयाभूदधोमुखः ॥५५॥ स किंकर्तव्यतामूढस्ततामान्तः परंतपः । कन्यका हि दुराचारा पित्रोः खेदाय जायते ॥५६।। कन्याहरणमाकर्ण्य क्रुद्धान्दीप्रानुवायुधान् । खेचराधिपतीन्सर्वानुत्तिष्ठासूनवारयत् ॥५७॥ तमाराध्य महात्मानं रक्षन्तः स्वपदस्थितिम् । प्रवर्द्धन्ते च राजन्याः सत्सेवा न हि तादृशी ॥५॥ लक्ष्म्याधिकोऽप्यनुत्सेको विद्वानपि विमत्सरः । समर्थोऽपि समर्यादः कः परस्तादृशः प्रभुः ।।५।। तं विराध्य महात्मानं मा भूस्त्वं बुद्धिदुर्गतः । न हि वैरायते क्षीवो द्विपोऽपि मृगविद्विषि ॥६०॥
नहीं है ( पक्ष में नाप तौल रूप प्रमाण से रहित है ) । स्थास्नुस्थिर है परन्तु तीनों लोकों में भ्रमण कर रहा है ( परिहार पक्ष में स्थायी होकर तीनों लोकों में व्याप्त है ) इस प्रकार अविरुद्ध-विरोध रहित पाप से विरुद्ध यश कैसे उत्पन्न हो गया? ॥४६।। शास्त्रज्ञान, शान्ति, गम्भीरता, शूर वीरता
से सहित तथा सज्जनों के साथ मित्रता करने में तत्पर अापके समान दूसरा दिखायी नहीं देता ।।५०। पापके कुल के प्राचीन पुरुष न्यायवन्त तथा महान् थे। यद्यपि आप भी. उनके मार्ग पर चल रहे हैं फिर व्यर्थ ही ऐसे चञ्चल क्यों होते हैं ? ॥५१॥ जिसके दोनों वंश विशुद्ध हैं तथा जिसकी प्राकृति असाधारण है ऐसे आपको इस कन्यारत्न रूप परधन को हरना योग्य नहीं है ॥५२॥
आप किसी कारण यहाँ गुप्त रूप से आये हैं इसलिये नीति से सुशोभित प्रापका गुप्त रूप से चला जाना ही श्रेयस्कर है ।।५३।। आपमें भी जो यह दुराचार पाया है वह भाई की चपलता से पाया है क्योंकि प्राणियों के गुण और दोष संसर्ग से ही होते हैं ॥५४।। कञ्चुकी के द्वारा कहे हुए मापके व्यवसाय को सुन कर राजा दमितारि 'एक कन्या मेरे नहीं हुई यह कह कर लज्जा से अधोमुख हो गया ।।५।। शत्रुओं को संतप्त करने वाला राजा किंकर्तव्यमूढ होकर भीतर ही भीतर दुःखी हो रहा है सो ठीक ही है क्योंकि दुराचारिणी कन्या माता पिता के खेद के लिये होती है ॥५६॥ कन्याहरण को सुन कर जो अद्ध हो रहे थे, देदीप्यमान हो रहे थे, शस्त्र ऊपर उठा रहे थे, तथा आसनों से उठ कर खड़े होना चाहते थे ऐसे सब विद्याधर राजाओं को उसने रोका है-मना किया है ।।५७।। उस महात्मा की सेवा कर अपनी पद मर्यादा की रक्षा करते हुए राजा लोग वृद्धि को प्राप्त होते हैं क्योंकि सत् पुरुषों की सेवा वैसी नहीं होती ॥५५।। लक्ष्मी से परिपूर्ण होने पर भी जिसे अहङ्कार नहीं है, विद्वान् होने पर भी जो मात्सर्य से रहित है, और समर्थ होने पर भी जो मर्यादा से सहित है ऐसा दूसरा प्रभु कौन है ? ॥५६॥ उस महात्मा की विराधना कर-उससे द्वष कर तुम बुद्धि से दरिद्र मत होओ। क्योंकि उन्मत्त
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१ कुलेभवाः २ सिंहे।
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