Book Title: Shantinath Purana
Author(s): Asag Mahakavi, Hiralal Jain, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
Publisher: Lalchand Hirachand Doshi Solapur
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प्रथम सर्ग। तमुवीक्ष्य ययौ मोहं स भ्रात्रा व्यजनादिभिः । सभ्यैर्व्यपोहितो मोहाद् भूयो जातिस्मरोऽभवत् ।।१०२।। स्वपरस्य च सम्बन्धं स्मरतोमि चात्मनः । प्राग्जन्माराधिता विद्याः प्रादुरासंस्तयोः पुरः ॥१०३।।
* शार्दूल विक्रीडितम् * सामन्तानिखिलान्तरङ्गसमिति चोत्सार्य दौवारिक
__ मूर्छाहेतुमुदीरयेति सचिवरुक्तः स चेत्यब्रवीत् । मोहं खेचरहारतः प्रगतवानस्मातृतीये भवे
__ 'प्राध्यायामिततेजसं स्वमतुलं विद्याधराणां पतिम् ।।१०४॥ स्वस्त्रीयोऽयमभूत्प्रसन्नविमलप्रज्ञान्वितो मत्पितु
स्तत्र श्रीविजयो नृपोऽनुज इति व्याहृत्य तेषां पुरः । राजेन्द्रः प्रयतो जिनेन्द्र महिमां कृत्वा ततोऽयं ददौ
विद्याभ्यः स्वपरोपकारचरितः सत्संपदा वृद्धये ॥१०५।। इत्यसगकृतौ शान्तिपुराणे श्रीमदपराजितविद्याप्रादुर्भावोनाम
प्रथमः सर्गः।
दूसरे चन्द्रमा के समान जान पड़ता था, राजा बहुत काल तक ऐसा देखता रहा मानों अपने यश की मूर्तिनन्त राशि को ही देख रहा हो ॥१०१।। उस हार को देख कर राजा मोह को प्राप्त हो गया
गया। भाई तथा अन्य सभासदों ने जब पङ्खा आदि के द्वारा उसे मोह से दूर किया तब उसे पुनः जाति स्मरण हो गया ॥१०२।। अपने और पर के सम्बन्ध तथा अपने नाम का स्मरण करते हुए उन दोनों के आगे पूर्वजन्म में पाराधित विद्याएं प्रकट हो गयीं ॥१०३।।
. द्वारपालों के द्वारा सामन्तों और समस्त अन्तरङ्ग समिति को दूर हटा कर मन्त्रियों ने राजा से कहा कि मूर्छा का कारण कहिये । राजा कहने लगा कि विद्याधर के हार से मुझे विदित हुमा कि मैं इस भव से तीसरे भव में अमिततेज नामका अनुपम विद्याधर-राजा था ।।१०४।। प्रसन्न और निर्मल बुद्धि से सहित यह विद्याधर मेरे पिता का भानेज था और मेरा छोटा भाई-अनन्तवीर्य वहां श्रीविजय नामका राजा था । इसप्रकार मन्त्रियों के आगे कह कर निज और परका उपकार करने वाले राजाधिराज अपराजित ने जिनेन्द्र भगवान की पूजा की। पश्चात् समीचीन सम्पदाओं की. वद्धि के लिये विद्याओं को अर्घ्य दिया ।।१०।। इसप्रकार महाकवि असगकवि की कृति शान्तिपुराण में श्रीमान् अपराजित राजा के
विद्याए प्रकट होने का वर्णन करने वाला प्रथम सर्ग समाप्त हुआ।
चिन्तयित्वा २ 'महिमा' इत्याकारान्त : स्त्रीलिङ्गः शब्दो वर्धमान चरितेऽपि कविना प्रयुक्ता।
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