Book Title: Shantinath Purana
Author(s): Asag Mahakavi, Hiralal Jain, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
Publisher: Lalchand Hirachand Doshi Solapur
View full book text
________________
*crapan.ccomment
द्वितीय सर्गः
*ccceeneumomen*
प्रथान्यदा यथाकालं भूमिपालः सहानुजः । मन्त्रशाला 'विशालाक्षः प्राविशन्मन्त्रिभिा समम् ॥१॥ प्रध्यास्यासनमुत्तुङ्ग स्वचित्तमिव भूपतिः । अमीषां तद्यथाद्ध बते स्मेति नयान्तरम् ॥२॥ गायिकाभ्यर्थनव्याजमनुप्राबीविशन्मयि । दमितारिः किमर्थं पा दूतं रत्नोपदान्वितम् ॥३॥ प्रत्यन्तगुप्तमन्त्रस्य संवृताङ्गङ्गित स्थितेः । विधेरिव सुदुर्बोधं वेष्टितं नीतिशालिनः ॥४॥ पायाभङ्गभयात्कि वा तेन रत्नमुपायनम् । ईदृशं प्रहितं लोके लोकज्ञो न हि तादृशः ॥५॥ नाधिगच्छति कार्यान्तं 'सामदानविजितः । समर्थोऽपि विना पदोया कस्तालमषिरोहति ॥६॥ तृणायापि' न मन्यन्ते 'दानहीनं नरं जनाः । तृणार्थ बाहयन्त्युच्चनिन मिति दन्तिनम् ॥७॥
द्वितीय सर्ग
अथानन्तर किसी समय विशाल लोचन तथा दीर्घदर्शी राजा ने छोटे भाई और मन्त्रियों के साथ यथा समय मन्त्रशाला में प्रवेश किया ॥१॥ अपने चित्त के समान उन्नत आसन पर बैठ कर राजा ने इन सब के आगे जो जैसा वृद्ध था तदनुसार इस अन्य नीति का कथन किया ।।२।। गायिकाओं की याचना का बहाना लेकर दमितारि ने रत्नों की भेंट सहित दूत को मेरे पास किसलिये भेजा है ॥३॥ जिसका मन्त्र अत्यन्त गुप्त है तथा जिसके शरीर और हृदय को चेष्टा संवृत है-प्रकट नहीं है ऐसे उस नीतिज्ञ दमितारि की चेष्टा विधाता की चेष्टा के समान अत्यन्त दुर्जेय है-कठिनाई से जानने के योग्य है ।।४।। अथवा याचना भङ्ग होमे के भय से क्या उसने ऐसा रत्नों का उपहार भेजा है ?
क में उसके समान दूसरा लोक व्यवहार का ज्ञाता नहीं है ।।५।। साम और दान से रहित मनुष्य कार्य के अन्त को प्राप्त नहीं होता सो ठीक ही है क्योंकि समर्थ होने पर भी कौन मनुष्य भुजाओं के बिना ताड़ वृक्ष पर चढ़ सकता है ? अर्थात् कोई नहीं ।।६।। लोग दान रहित मनुष्य को
१ दीर्घमोचनः दूरदर्शी च २ इङ्गितं हृच्चेष्टितम् ३ विधातुर्दैवस्य वा ४ साम्ना दानेन च रहितः ५ बाहभ्याम् ६ 'मन्यकर्मण्यनादरे' इति चतुर्थी ७त्यागरहितम् ८ मदजलरहितम् 'मदो दानम्' इत्यपर: दानमपि ब.।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org