Book Title: Shantinath Purana
Author(s): Asag Mahakavi, Hiralal Jain, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
Publisher: Lalchand Hirachand Doshi Solapur
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द्वितीय सर्गः
सदानुरक्त प्रकृतिः २प्रकृत्यैव परंतपः । नित्योदययुतो3 योऽभूद् भूपो भानुरिव स्वयम् ॥२५ । ईदृशः स्वसमं सम्यक् त्वामालोक्य समन्ततः । प्ररिणधि सामदानाभ्यां प्राहिणोत्सार्श्व गायिके ॥२६॥ संप्रति प्राभृतं साम स्वया तत्र विधीयताम् । प्रक्रमानुसमं तस्य पश्चात् प्रतिविधास्यसि ॥२७॥ इत्युक्त्वा विरते तस्मिन्वाणी मन्त्रिरिण सन्मतौ। क्रुद्धोऽपि निभृताकारोऽनन्तवीर्योऽब्रवीदिदम् ॥२८॥ नीतेस्तत्त्वमिदं सम्यगभ्यधायि त्वया वचः। 'अनुत्तरमुदात्तार्थ प्राप्तावसरसाधनम् ॥३०॥ अपि क्रोडीकृताशेषशास्त्रतत्त्वार्थशालिना। त्वया नावेवि यद्भाव: प्रमोः प्रष्टुस्तदद्भुतम् ॥३१॥ चक्रवादिसोत्सेकं यदूतेनेरितं पुरा । बालस्यापि न तद्वाक्यं प्रतिभाति कथं प्रभोः ॥३२।। आदिवाक्येन तेनैव युगपद्भददण्डको । अन्त नावुपन्यस्तौ न हि 'संविद्रते परे ॥३३।। यद्यस्याभिमतं किंचित् स तदेवावगच्छति । सभायां केनचित्प्रोक्ते वाक्ये नानाथसंकुले ॥३४।।
से युक्त है, सामन्तों से सहित है तथा मित्ररूप सम्पत्ति से विभूषित है ।।२४। जिसका मन्त्री आदि वर्ग सदा अनुरक्त है, जो स्वभाव से ही शत्रुओं को संतप्त करने वाला है तथा जो सूर्य के समान स्वयं नित्य ही उदय-अभ्युदय से युक्त है ।।२।। ऐसे उस दमितारि ने सब ओर से आपको अच्छी तरह अपने समान देखकर गायिकाओं को प्राप्त करने के लिये साम और दान के द्वारा दूत भेजा है ॥२६॥ इस समय आपको उसके पास साम रूप उपहार ही प्रेषित करना चाहिये। प्रकरण के अनुरूप जो प्रतिकार अपेक्षित है उसे पीछे कर सकोगे ।।२७।। इस प्रकार की वाणी कह कर जब सन्मति मन्त्री चुप हो रहे तब अनन्तवीर्य ने यह कहा । अनन्तवीर्य उस समय यद्यपि ऋद्ध था तथापि अपने आकार को निश्चल बनाये हुए था। भावार्थ-भीतर से कुपित होने पर भी बाहर शान्त दिखायी देता था ॥२८॥
आपने नीति का यह तत्त्व अच्छी तरह कहा है । आपका यह वचन सर्वश्रेष्ठ है, उत्कृष्ट अर्थ से सहित है तथा प्राप्त अवसर को सिद्ध करने वाला है-समयानुरूप है ।।२६।। यद्यपि अाप अच्छी तरह जाने हुए समस्त शास्त्रों के रहस्य से शोभायमान हो रहे हैं फिर भी आपने प्रश्न-कर्ता स्वामी के अभिप्राय को नहीं समझा यह आश्चर्य की बात है ॥३०॥ दूत ने पहले, चक्रवर्ती ( प्रथम सर्ग श्लोक ११) आदि श्लोकों को आदि लेकर जो अहंकार पूर्ण वचन कहे थे वे बालक को भी अच्छे नहीं लगते फिर प्रभु-अपराजित महाराज को अच्छे कैसे लग सकते हैं ।।३१॥
उसने उसी एक प्रथम वाक्य के द्वारा भीतर छिपे हुए भेद और दण्ड उपायों को एक साथ प्रस्तुत किया था। यह दूसरे नहीं जानते ॥३३।। सभा में किसी के द्वारा नाना अर्थों से युक्त वचन के कहे जाने पर जिसके लिये जो इष्ट होता है वह उसे ही समझ लेता है । भावार्थ-सभा में यदि कोई नाना अभिप्राय को लिये हुए वचन कहता है तो वहां सभासदों में जिसे जो अर्थ इष्ट होता है उसे ही वह ग्रहण कर लेता है ।।३४।। आप लोग साम और दान उपाय में रत हैं अतः उन्हें जानते हैं और महाराज अपराजित अपने योग्य उपाय को जानते हैं इसलिये उन्हें यही कथन अमादर रूप जान पड़ता
१. मन्त्र्यादिवर्ग: २ स्वभावेनैव ३ अभ्युदय उद्गमनञ्च, ४ दूतम् + ब्रवीद्वयः ब० ५ नास्ति उत्तरं श्रेष्ठ यस्मात्तत सर्वश्रेष्ठमित्यर्थः ६ जानन्ति * तदेवातिगच्छति ब० ।
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