Book Title: Samyag Darshan Part 03
Author(s): Kundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
Publisher: Kundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
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[सम्यग्दर्शन : भाग-3
निर्विकल्परस का पान करो
भावलिंगी सन्त-मुनि को समाधिमरण का अवसर हो... आसपास दूसरे मुनि बैठे हों, वहाँ उन मुनि को कभी तृषा से कदाचित पानी पीने की जरा-सी वृत्ति उत्पन्न हो जाये और माँगे... कि... पानी। __वहाँ दूसरे मुनि उन्हें वात्सल्य से सम्बोधन करते हैं कि अरे मुनि! यह क्या ! अभी पानी की वृत्ति !! अन्तर में निर्विकल्परस का पानी पियो... अन्तर में डुबकी लगाकर अतीन्द्रिय आनन्द के सागर में से आनन्द का अमृत पियो... और यह पानी की वृत्ति छोड़ो... अभी समाधि का अवसर है... अनन्त बार समुद्र भरे, इतना पानी पिया... तथापि तृषा नहीं बुझी... इसलिए इस पानी को भूल जाओ... और अन्तर में चैतन्य के निर्विकल्प अमृत का पान करो...
निर्विकल्पसमुत्पन्नं ज्ञानमेव सुधारसम्। विवेकं अंजुलिं कृत्वा तत् पिवंति तपस्विनः॥ तपस्वी मुनिवर विवेकरूप अंजलि द्वारा निर्विकल्पदशा में उत्पन्न होनेवाले ज्ञानरूपी सुधारस का पान करते हैं । हे मुनिश्रेष्ठ ! तुम भी निर्विकल्प आनन्दरस का पान करके अनन्त काल की तृषा को बुझा दो.....
इस प्रकार जब दूसरे मुनिराज सम्बोधन करते हैं, तब वे मुनि भी तुरन्त पानी की वृत्ति तोड़ डालते हैं और निर्विकल्प होकर अतीन्द्रिय आनन्द के अमृत को पीते हैं.............
अहो! धन्य उन निर्विकल्परस का पान करानेवाले वनवासी सन्तों को!. (- समाधिशतक, गाथा 39 पर पूज्य गुरुदेव के प्रवचन में से)
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