Book Title: Samyag Darshan Part 03
Author(s): Kundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
Publisher: Kundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
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[सम्यग्दर्शन : भाग-3
शिष्य को परमार्थ सम्यग्दर्शन कराने के लिए श्री आचार्यदेव कहते हैं कि तू चैतन्य जो वस्तुस्वभाव की अन्तर्दृष्टि कर! एकरूप
चैतन्य की दृष्टि में नव तत्त्व के भङ्ग-भेद का विकल्प खड़ा नहीं होता, परन्तु एक शुद्ध चैतन्य आत्मा ही अनुभव में आता है - इसका नाम सम्यग्दर्शन है, इसी का नाम आत्मसाक्षात्कार है और यही धर्म की पहली भूमिका है।
अभेदस्वभाव की दृष्टि से देखने पर नव तत्त्व नहीं दिखते हैं परन्तु एक आत्मा ही शुद्धरूप से दिखाई देता है; इसलिए भूतार्थनय से देखने पर नव तत्त्वों में एक शुद्ध जीव ही प्रकाशमान है और वही सम्यग्दर्शन का ध्येय है। व्यवहारदृष्टि में नव तत्त्व हैं परन्तु स्वभावदृष्टि में नव तत्त्व नहीं हैं। स्वभावदृष्टि से ऐसा अनुभव करना ही धर्म है, मानव जीवन में यही मुमुक्षु का कर्तव्य है।
सु........खी अहो आत्मा आनन्दस्वभाव से भरपूर है ऐसे आत्मा के सन्मुख देखो तो दुःख है ही कहाँ ? आत्मा के आश्रय से धर्मात्मा निशंक सुखी है कि भले ही देह का कुछ भी हो या सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड उलट-पुलट हो जाये तो भी मुझे उसका दु:ख नहीं है। मेरी शान्ति-मेरा आनन्द मुझ आत्मा के ही आश्रय से है । मैं अपने
आनन्दस्वरूप में डुबकी मारकर लीन हुआ, वहाँ मेरी शान्ति में विघ्न करनेवाला जगत में कोई नहीं है। इस प्रकार धर्मात्मा आत्मा के आश्रय से सुखी है। (सुख शक्ति के प्रवचन में से)
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