Book Title: Samyag Darshan Part 03
Author(s): Kundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
Publisher: Kundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai

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Page 205
________________ सम्यग्दर्शन : भाग-3] www.vitragvani.com आत्मार्थी का पहला कर्तव्य (9) भगवान आत्मा की प्रसिद्धि ( सर्वज्ञ के निर्णय में सम्यक् पुरुषार्थ ) [ 189 आत्मस्वभाव के निर्णय में सर्वज्ञ का निर्णय, और सर्वज्ञ के निर्णय में आत्मस्वभाव का निर्णय - इसमें बीच में विकार कहीं नहीं आया - ऐसे निर्णय के जोर से निशंक होकर अन्तर अनुभव करने पर भगवान आत्मा प्रसिद्ध होता है । सम्यग्दर्शन होता है और मोक्ष का दरवाजा खुल जाता है । धर्म करने के लिए जीव को आत्मा का स्वभाव समझकर सम्यग्दर्शन प्रगट करना चाहिए। आत्मा का स्वभाव तो ज्ञायक है, ज्ञान ही उसका स्वरूप है । अवस्था में जो कुछ विकारी भाव होते हैं, वे तो मात्र वर्तमान योग्यता से तथा कर्म के निमित्त से होते हैं। मूल वस्तुस्वरूप में वह विकार अथवा नव तत्त्व के भेद नहीं हैं । शुद्धनय द्वारा एकरूप ज्ञायकस्वभाव की दृष्टि से अनुभव करने पर ज्ञायकस्वभाव एक ही भूतार्थ है; नव तत्त्व अभूतार्थ हैं। 'मैं ज्ञायक वस्तु हूँ' - ऐसा जहाँ अन्तर्दृष्टि से निश्चित किया, वहाँ भेद का विकल्प टूटकर, अभेदरूप आत्मा का अनुभव हुआ और वही सम्यग्दर्शन धर्म है। जैसा वस्तु का मूलस्वभाव है, वैसा परिपूर्ण प्रतीति में ले तो धर्म होता है या उससे उलटा प्रतीति में ले तो धर्म होता है ? वस्तु के पूर्ण स्वभाव को प्रतीति में ले तो उसके आश्रय से धर्म होता है परन्तु यदि अपूर्णता अथवा विकार को ही सम्पूर्ण वस्तु मान ले तो Shree Kundkund - Kahan Parmarthik Trust, Mumbai. मई २० में

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