Book Title: Samyag Darshan Part 03
Author(s): Kundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
Publisher: Kundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
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सम्यग्दर्शन : भाग-3]
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समझायेंगे कि हमने इतना-इतना समझाया, तथापि जो जीव, देह को -कर्म को तथा राग को ही आत्मा का स्वरूप मानता है, वह जीव मूढ़ है, अज्ञानी है, पुरुषार्थहीन है। पर को ही आत्मा मानमानकर वह आत्मा के पुरुषार्थ को हार बैठा है। रे पशु जैसे मूढ़ ! तू समझ रे समझ! भेदज्ञान करके तेरे आत्मा को पर से भिन्न जान... राग से पृथक् चैतन्य का स्वाद ले।
इस प्रकार जैसे माता, बालक को शिक्षा देती है, उसी प्रकार आचार्यदेव, शिष्य को अनेक प्रकार से समझाते हैं। इसमें उसके हित का ही आशय है। ___आचार्यदेव कहते हैं कि भाई! जड़ की क्रिया में तेरा धर्म ढूँढ़ना छोड़ दे! इस चैतन्य में तेरा धर्म है, वह कभी जड़ नहीं हुआ। जड़ और चैतन्य दोनों द्रव्यों के भाग करके मैं तुझे कहता हूँ कि यह चेतनद्रव्य ही तेरा है; इसलिए अब जड़ से भिन्न अपने शुद्ध चैतन्यतत्त्व को जानकर तू सर्व प्रकार से प्रसन्न हो... तेरा चित्त उज्ज्वल करके सावधान हो... और यह स्वद्रव्य ही मेरा है' - ऐसा तू अनुभव कर। आहा... ! ऐसा चैतन्यतत्त्व हमने तुझे दिखाया... अब तू आनन्द में आ... प्रसन्न हो!
जैसे दो लड़के किसी वस्तु के लिये झगड़ें तो माता बीच में पड़कर भाग कर डालती है और समाधान कराती है; उसी प्रकार यहाँ आचार्यदेव, जड़-चेतन के भाग करके, बालक जैसे अज्ञानी को समझाते हैं कि ले, यह तेरा भाग! देख... यह चेतन्य है, वह तेरा भाग है और यह जड़ है, वह जड़ का भाग है; तेरा चैतन्य भाग ऐसा का ऐसा सम्पूर्ण शुद्ध है, उसमें कुछ बिगड़ा नहीं है; इसलिए तेरा
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