Book Title: Samyag Darshan Part 03
Author(s): Kundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
Publisher: Kundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
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सम्यग्दर्शन : भाग-3]
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उस ज्ञान में आत्मा के परिपूर्ण ज्ञानस्वभाव का निर्णय आ जाता है। सर्वज्ञ का निर्णय करने से अपने ज्ञातास्वभाव की प्रतीति हुई और पर्याय, ज्ञानशक्ति के सन्मुख होकर एकाग्र होने लगी, वही सच्चा पुरुषार्थ है। भले ही उस जीव को पर्याय में ज्ञान की अपूर्णता हो
और राग भी होता हो, तथापि वह जीव, राग का कर्ता नहीं होता; वह तो राग का भी ज्ञायक रहता है और अल्पज्ञता जितना वह अपना स्वरूप नहीं मानता। पर्याय में अल्पज्ञता होने पर भी उसकी दृष्टि तो परिपूर्ण ज्ञानमूर्ति स्वभाव में ही है - ऐसा जीव, साधक है।
सर्वज्ञ को पूर्ण ज्ञान है और इस साधक सम्यग्दृष्टि को अपूर्ण ज्ञान है, इतना अन्तर है परन्तु यह साधक जीव भी ज्ञानस्वभाव की एकता की दृष्टि में राग का कर्ता नहीं, अपितु ज्ञायक ही है। इस प्रकार ज्ञायकस्वभाव का निर्णय करके उसके अनुभव द्वारा सम्यग्दर्शन प्रगट करना ही प्रत्येक आत्मार्थी-मोक्षार्थी जीव का पहला कर्तव्य है।
इस प्रकार आचार्यदेव ने इस तेरहवीं गाथा में सम्यग्दर्शन का वर्णन किया है। सम्यक्त्व का मार्ग बतलाकर सन्तों ने महान उपकार किया है। सम्यक्त्वधारक सन्तों की जय हो।.
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