Book Title: Samyag Darshan Part 03
Author(s): Kundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
Publisher: Kundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai

View full book text
Previous | Next

Page 211
________________ www.vitragvani.com सम्यग्दर्शन : भाग-3] [195 प्रसिद्धि हुई। निर्मल अवस्था प्रगट होने पर द्रव्य-पर्याय की अभेदता से 'आत्मा ही प्रसिद्ध हुआ' - ऐसा कहा है। अनुभव में कहीं द्रव्य- पर्याय का भेद नहीं है। रागमिश्रित विचार छूटकर ज्ञान, ज्ञान में ही एकाग्र हुआ, इसका नाम आत्मख्याति है। यहाँ उस आत्मख्याति को सम्यग्दर्शन कहा है। यद्यपि आत्मख्याति, स्वयं तो ज्ञान की पर्याय है परन्तु उसके साथ सम्यग्दर्शन अविनाभावीरूप से होता है; इसीलिए उस आत्मख्याति को ही यहाँ सम्यग्दर्शन कहा है। इस प्रकार नव तत्त्वों में भूतार्थरूप से प्रकाशमान एक आत्मा को जानना ही नियम से सम्यग्दर्शन है - ऐसा सिद्ध करके श्री आचार्यदेव निशङ्कतापूर्वक कहते हैं कि यह सर्व कथन निर्दोष है। ऐसा ही वस्तु स्वरूप है और ऐसी ही सम्यग्दर्शन की विधि है; इसके अतिरिक्त दूसरी कोई विधि नहीं है। इसके अलावा दूसरा कुछ मानें तो, वह बाधासहित है। नव तत्त्व को भलीभाँति नहीं जाने तो वह मिथ्यात्वरूप दोषसहित है तथा नव तत्त्व के भेद के विकल्प में ही रूका रहे और एकरूप ज्ञायकस्वभाव की प्रतीति नहीं करे तो वह भी मिथ्यात्वरूप दोषसहित है। नव तत्त्व को जानने के पश्चात् ज्ञायकस्वभाव की एकता में ज्ञान ढले, वही निर्दोष सम्यग्दर्शन है, वही निर्दोष उपाय है। यहाँ तो आत्मार्थी जीव, नव तत्त्वों को जानकर अन्तर के अनुभव में झुकेगा ही - ऐसी ही बात है। नव तत्त्व में अटककर वापिस मुड़ जाएगा - ऐसी बात ही नहीं है। तात्पर्य यह है कि यह तो अफरगामी मुमुक्षु की ही बात है। Shree Kundkund-Kahan Parmarthik Trust, Mumbai.

Loading...

Page Navigation
1 ... 209 210 211 212 213 214 215 216 217 218 219 220 221 222 223 224 225 226 227 228 229 230 231 232 233 234 235 236 237 238 239