Book Title: Samyag Darshan Part 03
Author(s): Kundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
Publisher: Kundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
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[सम्यग्दर्शन : भाग-3
हूँ' – इस प्रकार स्वभाव में दृष्टि करके पलटना, वह धर्म की क्रिया है और मैं विकारी हूँ' - ऐसी विकारी दृष्टि करके पलटना, वह अधर्म की क्रिया है; देह की क्रिया, वह जड़ की क्रिया है।
शुद्धनय द्वारा अन्तर्दृष्टि से देखने पर आत्मा एक ज्ञायकभावरूप प्रकाशमान भूतार्थ अनुभव में आता है। श्री आचार्यदेव कहते हैं कि अरे भाई! तू अन्तर में तो देख! वहाँ छलाछल ज्ञानस्वभाव भरा है। जैसे, जहाँ सरोवर में पानी भरा हो, वहीं वह उछलता है; इसी प्रकार अन्तर के चैतन्य सरोवर में परिपूर्ण ज्ञान भरा है, उसमें डुबकी मार तो पर्याय में ज्ञान उछलेगा। कहीं पर के सामने देखने से अथवा भेद के विचार से तेरे गुण प्रगट नहीं होंगे; इसलिए उन्हें छोड़कर अन्तर के परिपूर्ण स्वभाव के सन्मुख दृष्टि कर और उसमें ही एकाग्र होकर अनुभव कर।
जो नव तत्त्वों को नहीं पहचानता, उसे तो अनुभव में आत्मा की प्रसिद्धि नहीं होती और नव तत्त्व को ज्यों का त्यों जानकर, नव तत्त्व के विकल्प में ही रुकनेवाले को नव तत्त्व की ही प्रसिद्धि है परन्तु भगवान आत्मा की प्रसिद्धि नहीं है; अर्थात्, सम्यग्दर्शन नहीं है। नव तत्त्व के भेद की दृष्टि छोड़कर, एकाकार ज्ञायकस्वभाव की दृष्टि से अनुभव करने पर भगवान आत्मा की प्रसिद्धि होती है। वह सम्यग्दर्शन है और वहीं से धर्म का प्रारम्भ होता है।
यहाँ 'आत्मा की प्रसिद्धि' होने की बात कही है, उसका आशय क्या है ? त्रिकाली आत्मस्वभाव तो प्रसिद्ध ही था, वह कहीं ढका नहीं था परन्तु अवस्था में पहले उसका भान नहीं था और अब उसका भान होने पर अवस्था में भगवान आत्मा की
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