Book Title: Samyag Darshan Part 03
Author(s): Kundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
Publisher: Kundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai

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Page 189
________________ www.vitragvani.com सम्यग्दर्शन : भाग-3] [173 आत्मार्थी का पहला कर्तव्य - (8) | ज्ञायकस्वभावी शुद्ध जीव का अनुभव ही नव तत्त्व के ज्ञान का प्रयोजन, और वही सम्यग्दर्शन जो जीव, निवृत्ति लेकर जिज्ञासुभाव से सत्-समागम में यथार्थ बात का श्रवण भी नहीं करता, वह जीव अन्तर धारणा करके तत्त्व का निर्णय कैसे करेगा और तत्त्वनिर्णय के बिना निःसन्देह होकर आत्मवीर्य अन्तर-अनुभव में कैसे लगेगा? इसलिए मुमुक्षु को जिज्ञासुभाव से सत्-समागम में वैराग्य| परिणतिपूर्वक तत्त्वनिर्णय करके अनुभव का प्रयत्न करना चाहिए। जीव, धर्म तो करना चाहते हैं परन्तु आत्मा को धर्म किस प्रकार हो? यह बात अनन्त काल से यथार्थरूप से समझ में नहीं आयी है। यदि एक सैकेण्ड भी आत्मा की समझ करे तो यह संसार-परिभ्रमण नहीं रह सकता है। परिभ्रमण के प्रबल कारणरूप आत्मभ्रान्ति है, उस आत्मभ्रान्ति के अभाव का वास्तविक उपाय क्या है? - यह जीव ने कभी नहीं जाना है। आत्मभ्रान्ति को मिथ्यात्व कहते हैं, उस मिथ्यात्व का अभाव कैसे हो; अर्थात्, सम्यग्दर्शन कैसे हो? इस बात को कभी नहीं जाना है। अरे! समकिती आत्मज्ञ सन्तों की उपासना भी सच्चे भाव से कभी नहीं की है। नव तत्त्वों को सम्यक् अन्तरभान से जानने पर, आत्मभ्रान्ति मिटकर सम्यग्दर्शन होता है और जीव को धर्म का प्रारम्भ होता है - ऐसा यहाँ आचार्यदेव बतलाते हैं। जीव ने आत्मा की दरकार करके धर्म की यह विधि अनन्त Shree Kundkund-Kahan Parmarthik Trust, Mumbai.

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