Book Title: Samyag Darshan Part 03
Author(s): Kundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
Publisher: Kundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
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[सम्यग्दर्शन : भाग-3
तीर्थङ्कर भगवान माता के गर्भ में हों अथवा छोटे बालक हों, तब भी उन्हें चैतन्य का ऐसा ही भान होता है। सौधर्म स्वर्ग के इन्द्र -इन्द्राणी; अर्थात्, शकेन्द्र और शची इन्द्राणी को भी ऐसा भान होता है, वे एकावतारी हैं। तीर्थङ्कर भगवान की सभा में सिंह-बाघ, सर्प इत्यादि अनेक तिर्यञ्च भी ऐसा आत्मभान प्राप्त कर लेते हैं। नरक में भी असंख्य जीवों को ऐसा भान होता है। आठ वर्ष का बालक भी ऐसा भान कर लेता है। यह सब भेद तो बाह्य शरीर के हैं, अन्दर आत्मा तो सबका एक समान चिदानन्दी भगवान है, उसका भान करके जो जागृत होता है, उसे ऐसा आत्मभान प्रगट हो जाता है।
इस चैतन्यमूर्ति आत्मस्वभाव को समझे बिना, शास्त्रों का पठन भी मात्र पुण्यबन्ध का कारण है। जिसे आत्मा का लक्ष्य नहीं है, वह कितने ही शास्त्र पढ़े, परन्तु उसे शास्त्र का वह समस्त पठन, मात्र मन के बोझरूप है; अन्तर में चैतन्य आनन्द की सुगन्ध उसे नहीं आती है, आत्मा की शान्ति का अनुभव उसे नहीं होता है। तिर्यञ्च आदि जीवों को शास्त्र का पठन न होने पर भी तीर्थङ्कर भगवान इत्यादि की वाणी सुनकर, अन्तर में यथार्थ भावभासन होने पर वे आत्मा के आनन्द का अनुभव प्रगट कर लेते हैं । वे तो आत्म अनुभवरहित ग्यारह अङ्ग के पाठी से भी उत्कृष्ट; अर्थात्, प्रशंसनीय है।
त्रिलोकनाथ तीर्थङ्करदेव ने प्रत्येक वस्तु को स्वतन्त्र देखकर नव तत्त्व का स्वरूप बतलाया है। उन नव तत्त्वों को पहचानकर नौ के भेद के विकल्परहित, अकेले ज्ञायकस्वभाव का अनुभव करना, वह धर्म है।
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