Book Title: Samyag Darshan Part 03
Author(s): Kundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
Publisher: Kundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
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[सम्यग्दर्शन : भाग-3
का विकास तो ज्ञान की अल्प अवस्था है। अरे! केवलज्ञान के समक्ष उसकी क्या गिनती? ऐसी तो अनन्त केवलज्ञान अवस्थाओं का पिण्ड मेरा एक ज्ञानगुण है और ऐसे अनन्त गुणों का पिण्डरूप सम्पूर्ण चैतन्य वस्तु वह मैं हूँ। इस प्रकार अपने अभेद आत्मा को लक्ष्य में लेना ही धर्म का प्रारम्भ है।
वस्तु का स्वरूप समझे बिना लोग, बाह्य में उपवास इत्यादि में धर्म मान बैठे हैं परन्तु बाह्य में आहार न आना तो जड़ की क्रिया है, उस समय शुभभाव हों तो वह पुण्य है और धर्म तो उन दोनों से पार आत्मा की अन्तर्दृष्टि से होता है। शुभराग करने से धर्म नहीं हो जाता तथा आहार नहीं आया, इससे शुभभाव हुआ - ऐसा भी नहीं है तथा जीव के शुभराग के कारण आहार की क्रिया रुक गयी - ऐसा भी नहीं है। जीव का धर्म अलग वस्तु है, शुभराग अलग वस्तु है और बाहर की क्रिया अलग वस्तु है; इस प्रकार समस्त तत्त्वों को जानना चाहिए।
जिसे नव तत्त्व की व्यवहारश्रद्धा भी नहीं है, उसे अखण्ड -स्वभाव की दृष्टि नहीं होगी। 'मैं ज्ञायक हूँ' ऐसा विचार / विकल्प, वह भी परमार्थश्रद्धा नहीं है। यहाँ 'मैं ज्ञायक हूँ' - ऐसे विकल्प को भी नव तत्त्व में से जीवतत्त्व में ले लिया है; इसलिए वह भी व्यवहार श्रद्धा में जाता है। शुद्ध जीवतत्त्व की श्रद्धा में 'मैं ज्ञायक हूँ' - ऐसा विकल्प भी नहीं है। मैं ज्ञायक हूँ' - ऐसी अनुभूति करे, वह तो आनन्दरूप है, उसमें कोई विकल्प नहीं है; इसलिए ऐसी अनुभूति तो जीव है परन्तु ऐसी अनुभूति न करे और मात्र उसके विचार में ही रूक जाए तो उसमें भेद का
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