Book Title: Samyag Darshan Part 03
Author(s): Kundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
Publisher: Kundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
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सम्यग्दर्शन : भाग-3]
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पुण्य-पाप इत्यादि जीव की विकारी पर्याय हैं; इसलिए उसमें निमित्त का भी ज्ञान कराते हैं। अकेले जीवतत्त्व में अपनी ही अपेक्षा से सात भेद नहीं पड़ते हैं। एक तत्त्व में सात अवस्था के प्रकार पड़ने पर उसमें निमित्त की अपेक्षा आती है। आत्मा की अवस्था में पुण्य-पाप होने में जीव की योग्यता है और अजीव उसमें निमित्त है, उस निमित्त को भी पुण्य-पाप कहा जाता है। ____ पाँचवाँ, आस्रवतत्त्व है। उस आस्रवतत्त्व के भी असंख्य प्रकार हैं। उस आस्रवरूप होने की जीव की योग्यता है। यहाँ 'योग्यता' कहकर आचार्यदेव ने जीव के परिणाम की स्वतन्त्रता बतलाई है। जो जीव के परिणाम की स्वतन्त्रता निश्चित न करे, उसमें त्रिकाली स्वयं-सिद्ध स्वतन्त्र वस्तु की श्रद्धा करके, सम्यग्दर्शन प्रगट करने की योग्यता नहीं हो सकती।
जीव की अवस्था में जो आस्रवभाव होता है, वह जीव आस्रव है और उसमें निमित्तरूप अजीवकर्म, वह अजीवआस्रव है। यदि विकारी आस्रव को ही जीवतत्त्व में लें तो वह जीव, विकार में ही अटक जाएगा और उसे धर्म नहीं होगा।अवस्था में वह विकार अपने अपराध से होता है - यदि ऐसा नहीं जानें तो उस विकार के अभाव का प्रसङ्ग कैसे बनेगा? जीव की अवस्था में जैसे परिणाम की योग्यता होती है, वैसा आस्रव आदि भाव होता है - ऐसा आचार्यदेव ने कहा है। तात्पर्य यह है कि शरीरादि बाह्य की क्रिया से आस्रव होता है, यह बात उड़ा दी है। जीव-अजीव की पर्याय की इतनी स्वतन्त्रता स्वीकार करें, तब नव तत्त्व को व्यवहार से स्वीकार किया कहा जाता है।
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