Book Title: Samyag Darshan Part 03
Author(s): Kundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
Publisher: Kundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
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[सम्यग्दर्शन : भाग-3
बीच में आयी हुई नव तत्त्व की श्रद्धा को व्यवहार श्रद्धा कहते हैं परन्तु जिसे पहले से ही व्यवहार के आश्रय की बुद्धि है, वह जीव तो व्यवहारमूढ है; उसे नव तत्त्व की व्यवहारश्रद्धा भी सच्ची नहीं है।
मात्र नव तत्त्व के विचार से सम्यग्दर्शन नहीं होता, परन्तु अभेद स्वरूप के अनुभव में नहीं पहुँच सके, तब बीच में अभेद के लक्ष्य से नव तत्त्व के विचार आये बिना नहीं रहते हैं। जिस प्रकार वारदान के बिना माल नहीं होता और वारदान स्वयं भी माल नहीं है; इसी प्रकार नव तत्त्व को जाने बिना सम्यक्श्रद्धा नहीं होती
और नव तत्त्व के विचार भी स्वयं सम्यक्श्रद्धा नहीं है। विकल्प से भिन्न पढ़कर अभेद आत्मा का अनुभव करना ही सम्यक्श्रद्धा का लक्षण है - ऐसा सम्यग्दर्शन का निश्चय-व्यवहार है।
चैतन्यमूर्ति भगवान आत्मा का अनुभव करके सम्यग्दर्शन प्रगट करना ही आत्मार्थी जीव का पहला कर्तव्य है; इसके अतिरिक्त जगत् के दूसरे किसी बाह्य कर्तव्य को आत्मार्थी जीव अपना कर्तव्य मानता ही नहीं है।
अहो! जीव का स्वभाव ज्ञायक शुद्ध चैतन्य है। उसमें तो बन्धन अथवा अपूर्णता नहीं है। ज्ञायकस्वभाव की दृष्टि से तो जीव में बन्ध-मोक्ष इत्यादि सातों तत्त्व नहीं हैं परन्तु वर्तमान अवस्था में विकार से भावबन्धन की योग्यता है। कर्मों ने जीव को परिभ्रमण नहीं कराया है, कर्म तो निमित्तमात्र हैं; जीव अपने विकार से परिभ्रमण करे, तब कर्मों को निमित्तरूप से परिभ्रमण करानेवाला कहा है। बड़े-बड़े नामधारी त्यागी और विद्वान् भी इस बात में
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