Book Title: Samyag Darshan Part 03
Author(s): Kundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
Publisher: Kundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
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सम्यग्दर्शन : भाग-3]
अजीव का पृथक्-पृथक् परिणमन है - यह जानता है । ज्ञानी, अन्तर्दृष्टि से जीव- अजीव को अलग-अलग परिणमता हुआ देखता है, यह बात आगे आयेगी।
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जिसे जीव- अजीव का भेदज्ञान नहीं है - ऐसा अज्ञानी जीव नव तत्त्व के विकल्प से जीव - पुद्गल की बन्धपर्याय के समीप जाकर अनुभव करता है । अखण्ड चिदानन्दतत्त्व की एकता को चूककर बाह्य संयोग को देखता है । बाह्यलक्ष्य से आत्मा और कर्म की अवस्था को एकरूप अनुभव करने पर तो नव तत्त्व भूतार्थ है, विद्यमान है। व्यवहारनय से देखने पर पर्याय में नव तत्त्व के विकल्प होते हैं परन्तु जिसे अकेले नव तत्त्व का भूतार्थपना ही भासित होता है और एकरूप चैतन्यस्वभाव का भूतार्थपना भासित नहीं होता, वह मिथ्यादृष्टि है ।
जीव-पुद्गल के सम्बन्ध का लक्ष्य छोड़कर, अकेले शुद्ध जीवतत्त्व को ही लक्ष्य में लेकर अनुभव करने पर अकेला भगवान आत्मा शुद्ध ही जीवरूप से प्रकाशमान है और नव तत्त्व अभूतार्थ हैं - ऐसा अनुभव करना सम्यग्दर्शन है । अभेद आत्मा की श्रद्धा करने से पूर्व अर्थात्, धर्म की पहली दशा होने से पहले जिज्ञासु जीव को नव तत्त्व का ज्ञान निमित्तरूप से होता है। नव तत्त्व सर्वथा है ही नहीं - ऐसा नहीं है ।
आत्मा और कर्म के सम्बन्ध से होनेवाले नव तत्त्वों की दृष्टि छोड़कर अकेले ज्ञायक की दृष्टि से स्वभाव सन्मुख जाकर अनुभव करना, वह सम्यग्दर्शन है । जिस प्रकार अकेले पानी के प्रवाह में भङ्ग नहीं पड़ता, किन्तु बीच में नाले के निमित्त से उसके प्रवाह
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