Book Title: Samyag Darshan Part 03
Author(s): Kundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
Publisher: Kundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
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सम्यग्दर्शन : भाग-3]
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हूँ, एकरूप हूँ, ऐसे स्वभाव की दृष्टि में एकता की ही मुख्यता है
और उसमें नव तत्त्व की अनेकता गौण हो जाती है; इसलिए शुद्धनय में नव तत्त्व अभूतार्थ हैं। __ आत्मा के अभेदस्वभाव की दृष्टि छोड़कर, पर्याय में परसङ्ग की अपेक्षा से देखने पर नव तत्त्व भूतार्थ हैं परन्तु जहाँ शुद्धनय से भेद का लक्ष्य छूटकर, अभेदस्वभाव की मुख्यता में ढलता है, वहाँ भेदरूप नव तत्त्वों का अनुभव नहीं है; इसलिए वे अभूतार्थ हैं और एक शुद्ध आत्मा ही भूतार्थरूप से प्रकाशमान है। ऐसे शुद्धात्मा का अनुभव होने पर सम्यग्दर्शन प्रगट हुआ, उस सम्यग्दर्शन के पश्चात् धर्मी को नव तत्त्व के विकल्प आते हैं परन्तु उनकी शुद्धदृष्टि में उन विकल्पों की मुख्यता नहीं है, एकाकार चैतन्य की ही मुख्यता है; इसलिए वे नव तत्त्व अभूतार्थ हैं । 'अभूतार्थ' कहने से उन नव तत्त्वों के विकल्प, अभेदस्वभाव की दृष्टि में उत्पन्न ही नहीं होते - यह आशय है।
देखो तो सही, आत्मा की कैसी सरस बात है! यह कोई बाहर की बात नहीं है किन्तु अन्तर में अपने आत्मा की ही बात है। भाई! तुझे सुख और शान्ति चाहिए न? तो तू उसकी शोध कहाँ करेगा? कहीं बाहर में देव-शास्त्र-गुरु अथवा स्त्री, लक्ष्मी, शरीर इत्यादि में सुख-शान्ति शोधने से वह प्राप्त नहीं हो सकती। वीतरागी देव-गुरु तो कहते हैं कि हे भाई! तुझे सुख-शान्ति चाहिए हो, सम्यग्दर्शन चाहिए हो, सत्य चाहिए हो, साक्षात् आत्मसाक्षात्कार चाहिए हो तो नित्य चिदानन्दस्वभाव में ही उसे शोध! अन्तर स्वभाव में शोधने से ही वह प्राप्त होने योग्य है। सत्समागम से नव
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