Book Title: Samyag Darshan Part 03
Author(s): Kundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
Publisher: Kundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai

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Page 184
________________ www.vitragvani.com 168] [सम्यग्दर्शन : भाग-3 तत्त्व पर ही दृष्टि है। जड़ के संग से भिन्न अकेले चैतन्यतत्त्व का उसे पता नहीं है। अहो! मुझमें अनन्त गुण होने पर भी मैं अभेदस्वभावी एक वस्तु हूँ, ज्ञायकस्वरूप हूँ - ऐसा अनुभव करना, वह परमार्थ सम्यग्दर्शन है। अभेद आत्मा के अनुभव में 'मैं ज्ञान हूँ' - ऐसे गुणभेद के विकल्पों को भी अवकाश नहीं है तो फिर नव तत्त्व के विकल्प होंगे ही कैसे? जो अभी नव तत्त्वों को भी नहीं मानता, उसे तो व्यवहारधर्म भी नहीं होता तथा पर-संयोग के समीप जाकर नव तत्त्वों को भूतार्थरूप से अनुभव करना; अर्थात्, एक जीव, तत्त्व को नव तत्त्वरूप अनुभव करना भी अभी सम्यग्दर्शन नहीं है। सम्यग्दर्शन किस प्रकार है ? - वह कहते हैं। अन्तर में चैतन्यस्वभाव के समीप जाकर अनुभव करने पर वे नव तत्त्व अभूतार्थ हैं और एक परमपारिणामिक ज्ञायक आत्मा ही भूतार्थरूप अनुभव में आता है - ऐसा अनुभव करना ही सम्यग्दर्शन है। अभेदस्वभाव की प्रधानता से आत्मा का अनुभव करने पर, वह ज्ञायकमूर्ति भगवान तो एक ही है; एकपना छोड़कर वह नव प्रकाररूप नहीं हुआ है। अहो! ऐसी सरस बात! पात्र होकर समझे तो निहाल हो जाए - ऐसी बात है। पहले सत्समागम में यह बात कान में पड़ने के पश्चात् अन्तर में विचार करके निर्णय करनेवाले को अनुभव होता है। जहाँ मुख्यता चैतन्यस्वरूप की हुई है, वहाँ अभेद चैतन्य ही दृष्टि में रहता है । नव भेद का विकल्प आता है, उसकी मुख्यता नहीं होती; इसलिए वह अभूतार्थ है। मैं अर्थात् जीव चैतन्य परिपूर्ण Shree Kundkund-Kahan Parmarthik Trust, Mumbai.

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