Book Title: Samyag Darshan Part 03
Author(s): Kundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
Publisher: Kundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
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सम्यग्दर्शन : भाग-3]
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आत्मार्थी का पहला कर्तव्य (6)
नव तत्त्व का स्वरूप और जीव- अजीव के परिणमन की स्वतन्त्रता
मात्र नव तत्त्व के विचार से सम्यग्दर्शन नहीं हो जाता परन्तु अभेद स्वरूप के अनुभव में नहीं पहुँच सका वहाँ बीच में अभेद के लक्ष्य से नव तत्त्वों का विचार आये बिना नहीं रहता । नव के विकल्प से भिन्न पड़कर एक आत्मा का अनुभव करना, वह सम्यक् श्रद्धा का लक्षण है ।
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यह धर्म की बात चलती है । सबसे पहला धर्म, सम्यग्दर्शन है। वह सम्यग्दर्शन कैसे हो ? उसकी बात इस तेरहवीं गाथा में है । जिसे आत्मा का धर्म करना है, उसे प्रथम नव तत्त्वों का पृथक् -पृथक् ज्ञान करना चाहिए। ये नव तत्त्व पर्यायगत हैं । त्रिकाली स्वभाव की दृष्टि में नव प्रकार के भेद नहीं हैं; इसलिए स्वभाव के अनुभवरूप आनन्द के समय तो नव तत्त्वों का लक्ष्य छूट जाता है परन्तु सर्व प्रथम जो नव तत्त्वों को पृथक्-पृथक् नहीं समझता, उसे एक अभेद आत्मा की श्रद्धा और अनुभव नहीं हो सकता।
नव तत्त्व को व्यवहार से जैसा है, वैसा जानकर उन नव में से एक अभेद चैतन्यतत्त्व की अन्तर्दृष्टि व प्रतीति शुद्धनय से करना, वह निश्चयसम्यग्दर्शन है और वही सच्चे धर्म की शुरुआत है। यह बात समझे बिना अज्ञानी जीव, बाह्य क्रियाकाण्ड के लक्ष्य से राग की मन्दता से पुण्य बाँधकर चार गतियों में परिभ्रमण करते हैं परन्तु आत्मा का कल्याण क्या है ? यह बात उन्हें नहीं सूझती और उन्हें धर्म भी नहीं होता।
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