Book Title: Samyag Darshan Part 03
Author(s): Kundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
Publisher: Kundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
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[सम्यग्दर्शन : भाग-3
जीव का बन्धन क्यों और
- उससे छुटकारा कैसे? अहो! जङ्गल में रहकर आत्मा के आनन्द में झूलते-झूलते मुनिवरों ने अमृत बहाया है। विकार के वेग में चढ़े हुए प्राणियों को फटकार करके ज्ञानस्वभाव की ओर मोड़ा है। अरे जीवों! वापस मुडो... वापस मुड़ो! यह विकार तुम्हारा कार्य नहीं है, तुम्हारा कार्य तो ज्ञान है। विकार की ओर के वेग से तुम्हारी तृषा नहीं बुझेगी... इसलिए उससे वापस हटो, वापस हटो। ज्ञान में लीनता से ही तुम्हारी तृषा शान्त होगी; इसलिए ज्ञान की ओर आओ रे... ज्ञान की ओर आओ।
आत्मा का ज्ञानस्वभाव है; उस ज्ञानस्वभाव में अन्तर्मुख होकर परिणमन करनेवाले को तो अपने ज्ञान-आनन्द का ही कर्तापना होता है, विकार का कर्तापना उसे नहीं होता और जहाँ विकार का कर्तापना नहीं होता, वहाँ बन्धन, दु:ख या संसार भी नहीं होता परन्तु अज्ञानी अपने ज्ञानस्वभाव को भूलकर, उससे विमुख वर्तता हुआ, विकार का कर्ता होकर परिणमित होता है; इसलिए उसे बन्धन, दुःख और संसार है। __यहाँ आचार्यदेव उसे समझाते हैं कि भाई! तेरे त्रिकाली ज्ञानस्वभाव को तू क्षणिक विकार से पृथक् देख। ज्ञान के साथ तुझे जैसी एकता है, वैसी रागादि विकार के साथ एकता नहीं है। इसलिए उन रागादि विकार के साथ की एकताबुद्धि छोड़... उनके साथ तुझे कर्ता-कर्मपना नहीं है, उस विकार के कर्तृत्वरहित तेरे ज्ञानस्वभाव को तू लक्ष्य में ले।
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