Book Title: Samyag Darshan Part 03
Author(s): Kundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
Publisher: Kundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
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सम्यग्दर्शन : भाग-3]
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मैं जीव हूँ, शरीर इत्यादि अजीव हैं; दया-दान-व्रत इत्यादि भाव पुण्य हैं। पुण्य है, वह जीव नहीं है और जीव है, वह पुण्य नहीं है। अजीव से जीव भिन्न है। इस प्रकार नव तत्त्व अभूतार्थनय से हैं, उन्हें ज्यों का त्यों जानना चाहिए। देखो, इतना जानना भी अभी कोई धर्म नहीं है। धर्म तो अन्तर में भेद का लक्ष्य छोड़कर, एकरूप परमार्थस्वभाव के अनुभव से होता है परन्तु इससे पूर्व उपरोक्त कथनानुसार नव तत्त्व के विचाररूप शुभभाव की प्रवृत्ति आये बिना नहीं रहती है।
अहो! जीव ने कभी अपनी आत्मा की दरकार नहीं की है। जैसे, बैल और गधे अपना सम्पूर्ण जीवन भार खींच-खींचकर पूरा कर देते हैं; उसी प्रकार बहुत से जीव तो यह मनुष्यभव प्राप्त करके भी व्यापार-धन्धा और रसोई इत्यादि की मजदूरी कर-करके जीवन गँवा देते हैं। कोई भी पर का तो कुछ कर ही नहीं सकता, व्यर्थ ही पर का अभिमान करता है परन्तु आत्मा कौन है ? और उसका स्वरूप क्या है ? इस बात का कभी अन्तरङ्ग में विचार नहीं करता।
मैं तो त्रिकाल ज्ञानस्वरूप जीवतत्त्व हूँ और शरीरादि अजीवतत्त्व हैं; दोनों तत्त्व भिन्न-भिन्न हैं। बाहर में पैसा इत्यादि वस्तुएँ लेने -देने की अथवा रसोई करने की क्रिया जड़ की है, वह मैं नहीं कर सकता हूँ; मैं तो जाननहार तत्त्व हूँ। जीव और अजीव सदा भिन्न हैं। इस प्रकार नव तत्त्व के यथार्थ विचार करना भी अभी व्यवहारसम्यक्त्व है और नव तत्त्व के भेद के विकल्परहित एक चैतन्यस्वरूप आत्मा की श्रद्धा करके अनुभव करना, वह परमार्थ
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