Book Title: Samyag Darshan Part 03
Author(s): Kundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
Publisher: Kundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
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सम्यग्दर्शन : भाग-3]
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हे भाई! यदि तू यह कहता हो कि मैं अरिहन्त का भक्त हूँ, मैं अरिहन्त प्रभु का दास हूँ, तो श्री अरिहन्तदेव द्वारा कथित नव तत्त्वों को तो भलीभाँति जान और उनसे विरुद्ध कहनेवाले कुदेव-कुगुरु का सेवन छोड़! भगवान ने जिस प्रकार कहा, तद्नुसार नव तत्त्वों को व्यवहार से भी तू नहीं जाने तो तूने अरिहन्त भगवान को नहीं माना है और तू अरिहन्त भगवान का भक्त, व्यवहार से भी नहीं है। व्यवहार से भी अरिहन्त प्रभु का भक्त वह कहलाता है कि जो उनके द्वारा कथित नव तत्त्वों को जाने और उससे विरुद्ध कहनेवाले अन्य को माने ही नहीं।
देखो, नव तत्त्व को जानने में भी अनेकता का अर्थात् भेद का लक्ष्य है। उस भेद के लक्ष्य में रुके, तब तक व्यवहारश्रद्धा है परन्तु परमार्थश्रद्धा नहीं है। जब उस अनेकता के भेद का लक्ष्य छोड़कर, अभेद स्वभाव की एकता के आश्रय से अनुभव करे, तब परमार्थ सम्यग्दर्शन होता है और तभी जीव अरिहन्तदेव का वास्तविक भक्त अर्थात् जिनेन्द्र का लघुनन्दन कहलाता है।
जीव स्वयं बन्धनभाव में अटकता है तो उसमें अजीव का निमित्तपना है। यदि अकेले चैतन्य में जीव के निमित्त बिना भी बन्धन होता हो, तब तो वह बन्धन, जीव का स्वभाव ही हो जाएगा। अकेले चैतन्य में स्वभाव से बन्धन नहीं होता, परन्तु चैतन्य की उपेक्षा करके अजीव के लक्ष्य में अटकने पर बन्धनभाव होता है। अवस्था में क्षणिक बन्धतत्त्व है। इस प्रकार उसे जानना चाहिए। ___अरे! बहुत से जीव तो बाहर की धमाल में ही समय गँवा देते हैं परन्तु अन्तर में तत्त्व समझने की दरकार नहीं करते और समझने
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