Book Title: Samyag Darshan Part 03
Author(s): Kundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
Publisher: Kundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
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[सम्यग्दर्शन : भाग-3
आनन्दमूर्ति एकरूप है, उसमें पर-संयोग अर्थात् कर्म के निमित्त के बिना अकेले स्वयं से ही पुण्य-पाप इत्यादि सात भेद नहीं पड़ते। उन सात तत्त्वों की योग्यता तो जीव में स्वयं में ही है परन्तु उसमें अजीव का निमित्त भी है; अजीव की अपेक्षा बिना अकेले जीवतत्त्व में सात प्रकार नहीं पड़ते। जीव ने अपनी योग्यता से पुण्यपरिणाम किया है, वह जीवपुण्य है और उसमें जो कर्म निमित्त है, वह अजीवपुण्य है; दोनों में अपनी-अपनी स्वतन्त्र योग्यता है। अजीव में जो पुण्य होता है, वह जीव के कारण नहीं होता और जीव में जो पुण्यभाव होता है, वह अजीव के कारण नहीं होता। वर्तमान एक समय में दोनों एक साथ हैं, उसमें जीव की योग्यता और अजीव का निमित्त – ऐसा निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध है।
सर्वज्ञ भगवान द्वारा कथित इन नव तत्त्वों को समझे तो स्थूल विपरीतमान्यताओं का तो अभाव हो ही जाता है। नव तत्त्व को माननेवाला जीव, ईश्वर को कर्ता नहीं मानता; वस्तु को सर्वथा कूटस्थ अथवा क्षणिक नहीं मानता। नव तत्त्व को माने तो जीव का परिणमन भी मानेगा; इसलिए जीव को कूटस्थ नहीं मान सकता तथा अजीव को भी कूटस्थ नहीं मान सकता। जगत् में भिन्न-भिन्न अनेक जीव-अजीव द्रव्य माने, एक द्रव्य में अनेक गुण माने, उनका परिणमन माने, उसमें विकार माने और उसे अभाव करने का उपाय है - ऐसा जानें, तभी नव तत्त्व को माने कहा जा सकते हैं। जो नव तत्त्व को मानता है, वह जगत् में एक कूटस्थ सर्वव्यापी ब्रह्म ही है - ऐसा नहीं मान सकता। सम्यग्दर्शन प्रगट करने की तैयारीवाले जीव को प्रथम, नव तत्त्व की ऐसी श्रद्धारूप आँगन आता है। यहाँ श्री आचार्यदेव ने सातों तत्त्वों में जीव की योग्यता की
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