Book Title: Samyag Darshan Part 03
Author(s): Kundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
Publisher: Kundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
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[सम्यग्दर्शन : भाग-3
जानने का प्रयोजन है; इसलिए यदि विकल्प तोड़कर आत्मा में एकाग्र हो तो नव तत्त्व को जाना कहा जाता है।
बन्धतत्त्व को जाना कब कहा जाता है ? जब उससे पृथक् हो तब। यह बन्ध है, यह बन्ध है' - इस प्रकार रटा करे, परन्तु यदि बन्धन से पृथक् नहीं हो तो वास्तव में बन्ध को जाना नहीं कहा जाता। इसी प्रकार नव तत्त्व को जानना कब कहा जाता है ? यदि नव तत्त्व के सन्मुख ही देखा करे तो नव तत्त्व का यथार्थ ज्ञान नहीं होता और आत्मा का ज्ञान भी नहीं होता। यदि आत्मस्वभाव के सन्मुख झुके तो ही नव तत्त्वों का यथार्थ ज्ञान हुआ कहा जाता है क्योंकि आत्मा की ओर ढलनेवाले ज्ञान में ही स्व-पर को जानने की सामर्थ्य होती है।
अजीव की ओर देखते रहने से अजीव का सच्चा ज्ञान नहीं होता, परन्तु जीव और अजीव भिन्न हैं - ऐसा समझकर अभेद
चैतन्यमूर्ति शुद्ध आत्मा की ओर ढलने से स्व-पर प्रकाशक ज्ञान खिलता है। वह ज्ञान अजीवादि को भी जानता है। ज्ञान तो आत्मा का है; ज्ञान कहीं नव तत्त्वों के विकल्प का नहीं है, विकल्प से तो ज्ञान भिन्न है। ज्ञान तो आत्मा का होने पर भी यदि वह ज्ञान आत्मा की ओर ढलकर आत्मा के साथ एकता नहीं करे और राग के साथ एकता करे तो वह ज्ञान स्व-पर को यथार्थ नहीं जान सकता अर्थात् वह मिथ्याज्ञान है, अधर्म है।
राग के आश्रय बिना ज्ञायक का अनुभव करने को आत्मख्याति कहते हैं और वह सम्यग्दर्शन है, वहाँ से धर्म का प्रारम्भ होता है। यहाँ दृष्टि में परिपूर्ण आत्मा का स्वीकार हुआ है, आँशिक वीतरागता
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