Book Title: Samyag Darshan Part 03
Author(s): Kundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
Publisher: Kundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
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[सम्यग्दर्शन : भाग-3
क्रिया के कारण पुण्य नहीं है और पुण्य से धर्म नहीं है। शुभभाव से पुण्य है और अन्तर में परमार्थस्वभाव के श्रद्धा-ज्ञान-चारित्र से धर्म है। अरे! जैन कहलाने और साधु नाम धरानेवालों को भी अभी नव तत्त्व के भाव का भी पता नहीं होता; अत: वास्तव में उन्हें जैन नहीं कहते। ___ पुण्य और पाप, वह वर्तमान क्षणिक विकारीदशा है और जीव तो त्रिकाली तत्त्व है। जड़ से पुण्य-पाप नहीं हैं तथा त्रिकाली जीवतत्त्व भी पुण्य-पाप का कारण नहीं है। यदि त्रिकाली जीवतत्त्व में पुण्य-पाप हो तो उनका कभी अभाव नहीं हो सकता। इस प्रकार जीवतत्त्व में पुण्य नहीं है तथा अजीवतत्त्व में भी पुण्य नहीं है; पुण्य स्वतन्त्र है, क्षणिक विकारीदशा है । यह सब शुद्धनय का विषय नहीं, अभूतार्थनय का विषय है - ऐसी नव तत्त्व की श्रद्धा, वह व्यवहारसम्यक्त्व है।
देखो, अभी तो धर्म के आँगन में आने पर व्यवहारश्रद्धा में भी इतना स्वीकार आ जाता है, फिर एक शुद्ध आत्मा के सन्मुख होकर अनुभव करने से सम्यक्प्रतीतिरूप धर्म प्रगट होता है।
चौथा, पाप तत्त्व है। जगत् तो परजीव के मरने से अथवा शरीर की क्रिया से पाप मानता है परन्तु वह वास्तव में पाप नहीं है। पाप तो जीव का कलुषितभाव ही है। अजीव में पापभाव नहीं है; पापभाव तो जीव की क्षणिक विकारी अवस्था है। जीव की अवस्था को छोड़कर कहीं बाहर में तो पाप रहता ही नहीं। पुण्य-पाप इत्यादि तत्त्व, क्षणिक अवस्था में हैं अर्थात् वर्तमान अवस्थादृष्टि से देखने पर यह नव तत्त्व विद्यमान हैं, इन्हें जानना चाहिए।
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