Book Title: Samyag Darshan Part 03
Author(s): Kundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
Publisher: Kundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
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सम्यग्दर्शन : भाग-3]
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हमारा स्वरूप नहीं था; अतः तेरी अवस्था में जो मिथ्यात्व-रागादि हैं, वह तेरा भी स्वरूप नहीं हैं, अपितु तू भी विकाररहित शुद्ध चैतन्यस्वरूप है। इस प्रकार अपने परमार्थस्वरूप का अनुमान करके, उसकी रुचि कर – यही सम्यग्दर्शन की प्राप्ति का उपाय है। ___ शरीर-मन-वाणी इत्यादि तो जड़ हैं, अजीव हैं; वे आत्मा से भिन्न हैं - ऐसा दृष्टिगोचर होता है और क्रोधादि विकारीभाव तो नये-नये करे तो होते हैं, न करे तो नहीं होते – ऐसा अनुभव में आता है। पूर्व में काम-क्रोधादि की तीव्र विकारी वासना हुई हो, उसका वर्तमान ज्ञान में विचार करने से उनका ज्ञान होता है परन्तु वह विकारी वासना वर्तमान में प्रगट नहीं होती; इसलिए वह विकारी वासना, आत्मा का वास्तविक स्वरूप नहीं है; ज्ञान ही आत्मा का स्वरूप है। इस प्रकार अनुमान से आत्मा के स्वभाव को लक्ष्य में लेकर निर्णय करना, वह सम्यग्दर्शन का कारण है।
किसी को तीव्र क्रोधावेश में किसी की हत्या करने की वृत्ति उत्पन्न हुई और उसने दो-चार हत्याएँ कर डालीं; तत्पश्चात् जब वह वृत्ति रुक गयी, तब वह उसका पश्चाताप करता है। उस समय पूर्व में हत्या करने का जो क्रोध का वेग था, वह वर्तमान में नहीं आता, क्योंकि वह चैतन्य का स्वभाव नहीं है। देखो, यह तो तीव्र विकार की बड़ी बात की है। इसी प्रकार दूसरे भी पुण्य अथवा पाप के जो विचार आते हैं, वे दूसरे क्षण मिट जाते हैं; इसलिए वे मेरा स्वरूप नहीं हैं। मैं विकार का ज्ञान करनेवाला स्वयं विकाररहित ज्ञानस्वरूप हूँ - ऐसा पहले अनुमान करना चाहिए।
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