Book Title: Samyag Darshan Part 03
Author(s): Kundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
Publisher: Kundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
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सम्यग्दर्शन : भाग-3]
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से देखने पर नव तत्त्व दिखते हैं परन्तु एकरूप चैतन्यज्योति अर्थात् स्वभाव की दृष्टि से देखने पर उसमें नव तत्त्व के भङ्ग नहीं हैं और नव तत्त्व के लक्ष्य से होनेवाले राग से भी वह भिन्न है - ऐसे शुद्ध आत्मा को देखनेवाले ज्ञान को शुद्धनय कहते हैं । भगवान ! तू अन्दर से श्रद्धा-ज्ञान करके, वस्तु को पहचान तो सही ! नव तत्त्व की रागमिश्रित श्रद्धा, वह पुण्यबन्ध का कारण है; धर्म का कारण नहीं है। नव तत्त्व की श्रद्धा को व्यवहारसम्यक्त्व कहा है। वह व्यवहारसम्यक्त्व, शुभराग है; उसे वस्तुतः सम्यक्त्व मानना तो मिथ्यात्व है ।
अहो! आचार्यदेव कहते हैं कि जब एक अखण्ड चैतन्यस्वभाव की दृष्टि छोड़कर मात्र नव तत्त्व के भेदों का अनुभव करना भी मिथ्यात्व है तो फिर कुदेवादि की श्रद्धा की बात ही कहाँ रही ? उसकी तो बात ही यहाँ नहीं ली गयी है ।
अभेद स्वभाव के आश्रय से सम्यग्दर्शन प्रगट होने के पश्चात् धर्मी को नव तत्त्वादि के विकल्प होने पर भी, उसकी दृष्टि भिन्न एकाकार आत्मज्योति पर है । नव तत्त्व का ज्ञान करने पर भी आत्मज्योति अपने एकत्व को नहीं छोड़ती अर्थात् धर्मी की दृष्टि एकरूप चैतन्यज्योति से नहीं हटती है।
जो जीव, मात्र नव तत्त्व का रागसहित विचार करता है और भिन्न एकरूप आत्मा का अनुभव नहीं करता, वह तो मिथ्यात्वी है । नव तत्त्व के भेद में रहने से एकरूप आत्मा ज्ञात नहीं होता अनुभव नहीं आता, किन्तु एकरूप अनुभव करने पर उसमें नव तत्त्व का रागरहित ज्ञान समाहित हो जाता है । अन्दर में 'यह बात
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