Book Title: Samyag Darshan Part 03
Author(s): Kundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
Publisher: Kundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
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सम्यग्दर्शन : भाग-3]
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चिदानन्दतत्त्व अन्तर में है और रागादि वृत्तियाँ बहिर्लक्ष्यी हैं; ऐसी रागादि वृत्ति का बहुमान - रुचि आदर वर्ते, उस जीव को त्रिकाली चिदानन्दतत्त्व के प्रति अनादर - अरुचि - क्रोध है, यही महा पाप है । भेदज्ञान के द्वारा इस महापाप से कैसे बचना ? उसकी यह बात है ।
भेदज्ञान क्या चीज है ? उसके भान बिना अनन्त बार जीव ने बाह्य त्याग किया, दयादि के शुभभाव किये और उस बाह्य क्रिया का या राग का ही कर्तापना मानकर अज्ञानीरूप से संसार में ही परिभ्रमण किया और दु:खी हुआ; इसलिए इन रागादि के साथ एकतारूप जो क्रोधादि क्रिया है, वह निषेध की गयी है । ज्ञान -क्रिया का ही कर्ता हूँ, क्रोधादि क्रिया का कर्ता नहीं हूँ - ऐसे ज्ञान और क्रोध का भेदज्ञान करना, वह प्रथम अपूर्व धर्म है
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विकार के कर्तापनेरूप क्रिया, आत्मा के स्वभाव से बाहर है, तथापि मानो कि वह मेरा स्वभाव ही हो - ऐसी अज्ञानी को टेव पड़ गयी है; इसलिए उस विकार के कर्तापनेरूप परिणमता है । कर्म के उदय के कारण विकाररूप परिणमता है - ऐसा नहीं है परन्तु उसे स्वयं को अज्ञानभाव से विकार का कर्ता होने की टेव पड़ गयी है, इसलिए उस विकार के कर्तारूप परिणमता है। यह अज्ञानी की क्रिया है जो कि संसार का कारण है ।
जैसे गाड़ी का जुँआ उठाने की आदतवाला बैल जुँआ होते ही वहाँ अपनी गर्दन डालता है । इसी प्रकार विकार के कर्तापने की आदतवाला अज्ञानी, विकार की एकता करके परिणमता हुआ संसाररूपी जुँआ में अपने को जोड़ता है, विकार के कर्तापने का
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