Book Title: Samyag Darshan Part 03
Author(s): Kundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
Publisher: Kundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
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सम्यग्दर्शन : भाग-3]
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अन्तर्मुख होना। पहले अन्तर में ज्ञान से निर्णय करे; पश्चात् अन्तर्मुख उपयोग द्वारा निर्विकल्प अनुभव होने पर सम्यग्दर्शन होता है परन्तु पहले उसकी योग्यता के लिये ही बहुत तैयारी चाहिए। देव-गुरु -शास्त्र कैसे होते हैं ? उन्हें पहचानकर उनका विनय - बहुमान हो और उनके द्वारा कथित तत्त्व को पहचाने, पश्चात् अन्तर्मुख होने पर सम्यक्त्व होता है ।
प्रश्न : आत्मा ने यह हाथ ऊँचा किया - ऐसा दिखता है न ?
उत्तर : नहीं; ऐसा दिखता नहीं परन्तु स्वयं की मिथ्या कल्पना से ऐसा मानता है कि आत्मा ने हाथ ऊँचा किया। आत्मा तो कहीं इसे आँख से दिखता नहीं, शरीर को देखता है; शरीर का हाथ ऊँचा हुआ - ऐसा दिखता है परन्तु आत्मा ने वह ऊँचा किया - ऐसा तो कहीं दिखता नहीं। एक आत्मा अपने से भिन्न दूसरे पदार्थ का कुछ भी करे, यह बात मिथ्या है। इस मिथ्यात्व में विपरीत अभिप्राय का महापाप है; उसमें चैतन्य की विराधना है । यह मोटा दोष अज्ञानियों को ख्याल में नहीं आता । पाप - परिणाम करे और पैसा मिले वहाँ कोई ऐसा माने कि पाप के कारण पैसा मिला तो यह बात जैसे मिथ्या है, उसी प्रकार हाथ ऊँचा होने पर आत्मा ने उसे ऊँचा किया - ऐसा मानना भी मिथ्या है।
प्रश्न : आत्मा कहाँ रहता है ?
उत्तर : आत्मा, आत्मा में रहता है; आत्मा, शरीर में नहीं रहा है । शरीर और आत्मा भले ही एक जगह हो परन्तु आत्मा की सत्ता शरीर से भिन्न है । आत्मा तो चैतन्य प्रकाशी है ।
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आत्मा स्वयं ही है परन्तु अज्ञान के कारण स्वयं अपनी सत्ता
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