Book Title: Samyag Darshan Part 03
Author(s): Kundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
Publisher: Kundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
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सम्यग्दर्शन : भाग-3]
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बदलनेवाला मानता है तो वह त्रिकालवेत्ता नहीं हो सकता। इस प्रकार जीव का ज्ञानस्वभाव ही है और पदार्थ स्वतन्त्र है।
जब तक जीव अपने ज्ञानस्वभाव को नहीं जानता और पर के साथ कर्ता-कर्मपना मानता है, तब तक वह अज्ञानी है।
भेदज्ञान द्वारा स्व-पर को भिन्न-भिन्न जानकर, जब अपने ज्ञानस्वभाव में ही एकतारूप निर्मलपर्याय के कर्तारूप जीव परिणमित होता है, तब वह ज्ञानी है।
रागादि बहिर्भाव मेरा कार्य और मैं उनका कर्ता – ऐसे राग के साथ की एकत्वबुद्धि का कर्तृत्व, वह अज्ञानी का कार्य है और अज्ञानी उसका कर्ता है; इसलिए उस विकार का कर्ता ज्ञानस्वभाव भी नहीं है और जड़कर्म भी नहीं है; क्षणिक अज्ञानभाव ही उसका कर्ता है, ज्ञानभाव से जीव उसका कर्ता नहीं है।
ज्ञानी या अज्ञानी किसी को भी पर का कर्तापना तो है ही नहीं तथा परद्रव्य उसका कर्ता नहीं; प्रत्येक द्रव्य का कार्य अपनेअपने में ही होता है, दूसरे में नहीं होता। ___ अज्ञानी, कर्ता और देहादि की क्रिया उसका कार्य - ऐसा नहीं है तथा जड़कर्म इत्यादि कर्ता और रागादि उसका कार्य - ऐसा भी नहीं है। आत्मा के कार्य का कर्ता, आत्मा और जड के कार्य का कर्ता, जड़ है।
अज्ञानी भले ही माने कि मैं देहादि की क्रिया का कर्ता हूँ, तथापि वह कहीं देहादि की क्रिया का कर्ता नहीं हो सकता है। देहादि की क्रिया के कर्तारूप जड़-पुद्गल स्वयं परिणमित होते हैं। अज्ञानी तो उस समय मात्र अज्ञानभाव का ही कर्ता होकर परिणमित होता है। वह अज्ञान ही संसार का मूल है।
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