Book Title: Samyag Darshan Part 03
Author(s): Kundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
Publisher: Kundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
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सम्यग्दर्शन : भाग-3]
साथ कर्ता-कर्म की जो प्रवृत्ति अनादि से चली आ रही है, उसका नाश किस प्रकार हो? उसकी यह बात है।
★ क्षणिक विकार की कर्तृत्वबुद्धि में त्रिकाली चिदानन्दस्वभाव का अनादर होता है, वह अनन्त क्रोध है।
★ चैतन्य का स्वामित्व चूककर, जड़ का और विकार का स्वामित्व माना तथा उसके कर्तापने का अहंकार किया, यही अनन्त मान है।
★ सरल चैतन्यस्वभाव को वक्र करके, विकार में जोड़ा, यही अनन्त वक्रता / माया है।
★ जो अपने चैतन्यस्वभाव से भिन्न हैं - ऐसे पर और विकार के ग्रहण की बुद्धि, वही अनन्त लोभ है।
– इस प्रकार अज्ञानभाव में अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया, लोभ का सेवन है, वही अनन्त संसार का मूल है।
भेदज्ञान होते ही उस अज्ञान का नाश होता है और अनन्त संसार का मूल छिद जाता है; इसलिए वह जीव अल्प काल में अवश्य मोक्ष प्राप्त करता है। ऐसा भेदज्ञान कैसे हो? उसकी यह बात है। अनन्त जीव और अजीव पदार्थ, जगत् में स्वमेव सत् अनादि-अनन्त हैं; वे प्रत्येक पदार्थ स्वभाव से ही अपने-अपने कार्यरूप परिणमित होते हैं। पदार्थ में द्रव्य-गुण तो त्रिकाल है, इसलिए उनमें तो कुछ नया करना है नहीं; नया कार्य पर्याय में होता है, उस पर्याय का कर्ता, पदार्थ स्वयं है। अब यहाँ अज्ञानी, कर्ता होकर क्या करता है और ज्ञानी कर्ता होकर क्या करता है - यह बात है।
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