Book Title: Samyag Darshan Part 03
Author(s): Kundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
Publisher: Kundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
View full book text
________________
www.vitragvani.com
70]
[सम्यग्दर्शन : भाग-3
में मिल नहीं जाते। ऐसा ही अनादि व्यवहार है कि कोई द्रव्य अन्य द्रव्य के साथ मिल नहीं जाता; किसी के गुण अन्य के साथ मिल नहीं जाते; किसी की पर्याय अन्य की पर्याय के साथ मिल नहीं जाती - ऐसी ही उदासीन वृत्ति है । वस्तु का ऐसा निरपेक्षस्वभाव यहाँ छह वीतरागी मुनियों के दृष्टान्त से समझाया है। एक गुफा में छह वीतरागी मुनि रहते हैं, छहों मुनि अपने-अपने स्वरूप-साधना में ही लीन हैं। किसी को किसी के प्रति मोह नहीं है; छहों वीतरागी मुनि एक-दूसरे से निरपेक्षरूप से स्वरूप साधना में ही लीन हैं; इसी प्रकार इस लोकरूपी गुफा में छहों द्रव्य, वीतरागी मुनियों की तरह एक-दूसरे से निरपेक्ष रहे हुए हैं, कोई द्रव्य अन्य द्रव्य की अपेक्षा नहीं रखता; सब अपने-अपने गुण-पर्याय में ही रहे हुए हैं।
- ऐसा निरपेक्ष वस्तुस्वभाव होने पर भी, अज्ञानी जीव, भ्रम से यह मानता है कि मैं पर का कर्ता और पर मेरा कार्य। पर के कर्ता-कर्मपने की बात तो दूर रही - यहाँ तो अन्दर के विकारीभावों के साथ भी भेदज्ञान कराकर, उन विकारीभावों के साथ कर्ता -कर्मपने की बुद्धि छुड़ाते हैं। ___ मैं एक चैतन्यस्वभावी तत्त्व और विकारी वृत्तियाँ अनेक प्रकार की; तो मेरा एक चैतन्यभाव, अनेकविध विकारी वृत्तियों का कर्ता कैसे हो? इसलिए एक चैतन्यस्वभावी ऐसे मुझे, अनेकविध क्रोधादि भावों के साथ कर्ता-कर्मपना नहीं है – ऐसा जानता हुआ धर्मी जीव, क्रोधादि विकार का कर्ता नहीं होता। __ ज्ञान और क्रोधादि को एकमेकरूप से मानता हुआ अज्ञानी जीव यह मानता है कि मैं एक चैतन्य तो कर्ता हूँ और यह क्रोधादि अनेक भाव मेरा कर्म है – इस प्रकार उस अज्ञानी को विकार के
Shree Kundkund-Kahan Parmarthik Trust, Mumbai.