Book Title: Samyag Darshan Part 03
Author(s): Kundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
Publisher: Kundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
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सम्यग्दर्शन : भाग-3]
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कारण नहीं है। विकार के साथ उसे कारण-कार्यपने का अभाव है; मात्र ज्ञेय-ज्ञायकपना ही है।
अहा! भेदज्ञानी के सम्यक् अभिप्राय में (स्वभाव की) कितनी महत्ता है!! और अज्ञानी के विपरीत अभिप्राय में स्वभाव का कितना अनादर है!! इसका लोगों को ख्याल नहीं आता। जहाँ भेदज्ञान हुआ, वहाँ चैतन्यस्वभाव में ही स्वपने का सम्यक् अभिप्राय हुआ और अन्य सबसे परिणति भिन्न पड़कर स्वभावोन्मुख हुई। अज्ञानी, राग
और ज्ञान की एकताबुद्धि से सम्पूर्ण आत्मा को रागमय मान रहा है। ___जगत् के भय से नीति निपुण पुरुष अपने धर्म-मार्ग को नहीं छोड़ते। जहाँ भेदज्ञान हुआ, वहाँ ज्ञानी को सम्पूर्ण जगत् से उपेक्षा हुई; जगत् का कोई तत्त्व मेरी निर्मल परिणति का कारण नहीं, मेरी निर्मल परिणति का कारण तो मेरा आत्मा ही है। मेरे आत्मा के अतिरिक्त जगत् के तत्त्व मुझसे बाह्य हैं, उनका मेरे अन्तर में प्रवेश नहीं हैं तो बाहर में रहकर मुझमें वे क्या करेंगे? द्रव्य, गुण और निर्मलपर्याय के पिण्डरूप शुद्धात्मा ही मेरा अन्तरङ्ग तत्त्व है, ऐसे जो अनुभवता है, वही ज्ञानी है, वही धर्मी है। ____ (समयसार) ७६-७७-७८ गाथा में ऐसा कहा है कि जो ज्ञानी हुआ, वह आत्मा अपने निर्मल परिणाम को ही करता है, इसके अतिरिक्त रागादि भाव के साथ या कर्मों के साथ उसे कर्ता-कर्मपना नहीं है। जो निर्मल भाव प्रगट हुआ, वह कर्मबन्धन में निमित्त भी नहीं है।
अब, ७९ वीं गाथा में ऐसा कहते हैं कि पुद्गलद्रव्य को जीव के साथ कर्ता-कर्मभाव नहीं है, अर्थात् आत्मा के शुद्धभाव, पुद्गल के अवलम्बन से प्रगट नहीं हुए। सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र का
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