Book Title: Samyag Darshan Part 03
Author(s): Kundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
Publisher: Kundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
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सम्यग्दर्शन : भाग-3]
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अन्त में सर्वत्र उपयोग ही व्यापता है परन्तु उसमें कहीं राग व्यापता नहीं है, राग तो बाह्य ही रहता है; इसलिए ज्ञानी-धर्मात्मा को उस राग के साथ कर्ता-कर्मपना नहीं है; मात्र ज्ञाताज्ञेयपना ही है। जैसे स्तम्भ इत्यादि परद्रव्य को ज्ञानी अपने ज्ञान से भिन्न जानता है, उसी प्रकार रागादि परभावों को भी ज्ञानी अपने ज्ञान से भिन्न जानता है।
प्रश्न : इसमें पुरुषार्थ आया है ?
उत्तर : अरे भाई! अन्तर का महावीतरागी पुरुषार्थ इसमें आता है। अनन्त परद्रव्यों से और सर्व परभावों से अपने ज्ञान को पृथक् का पृथक् ही रखना-इसमें ज्ञान का अनन्त पुरुषार्थ है। बाहर में दौड़-भाग करे, उसमें अज्ञानी को पुरुषार्थ दिखता है, पर्वत खोदने में अज्ञानी को पुरुषार्थ भासित होता है परन्तु ज्ञान, राग से भिन्न पड़कर स्वयं अपने चिदानन्दस्वभाव में स्थिर हुआ, उसमें रहा हुआ अपूर्व -अचिन्त्य सम्यक् पुरुषार्थ अज्ञानी को नहीं दिखता है।
निर्मल पर्याय की अनुभूति को आत्मा के साथ अभेदता होने से उस अनुभूति को निश्चय से आत्मा ही कहा और रागादि भावों को उस अनुभूति से भिन्नता होने से उन रागादि को निश्चय से पुद्गल का ही कहा है। इस प्रकार भेदज्ञान की अनुभूति में ज्ञानी को स्व-पर का स्पष्ट बंटवारा हो जाता है।
देखो, यह ज्ञानी-धर्मात्मा की दुकान का माल ! ज्ञानी के पास तो ज्ञान; और राग की मिलावटरहित शुद्धज्ञानरूप स्पष्ट माल मिलेगा; ज्ञान और राग की मिलावट वे नहीं करते हैं। जैसे जिन्हें ब्रह्मचर्य का रंग है - ऐसे सन्तों से तो ब्रह्मचर्य के पोषण की ही बात मिलेगी, वहाँ कहीं विषय-कषाय के पोषण की बात नहीं मिलेगी;
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