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डॉ० सागरमल जैन : व्यक्तित्व एवं कृतित्व
सत्य को उद्घाटित करने का प्रयत्न किया है। उसके परिणामस्वरूप तटस्थ चिन्तकों, विद्वानों और साम्प्रदायिक अभिनवेशों से मुक्त सामाजिक कार्यकर्ताओं में आपके लेखन ने पर्याप्त प्रशंसा अर्जित की।
आज यह कल्पना भी दुष्कर लगती है कि एक बालक जो १५-१६ वर्ष की वय में ही व्यावसायिक और पारिवारिक दायित्वों के बोझ से दब सा गया था, अपनी प्रतिभा के बल पर विद्या के क्षेत्र में अपना प्रभुत्व स्थापित कर लेगा। आज देश में जैन विद्या के जो गिने-चुने शीर्षस्थ विद्वान हैं, उनमें अपना स्थान बना लेना यह डॉ० सागरमल जैन जैसे अध्यवसायी, श्रमनिष्ठ और प्रतिभाशाली व्यक्ति की ही क्षमता है । यद्यपि वे आज भी ऐसा नहीं मानते हैं कि यह सब उनकी प्रतिभा एवं अध्यवसायिता का परिणाम है । उनकी दृष्टि में यह सब मात्र संयोग है। वे कहते हैं 'जैन विद्या के क्षेत्र में विद्वानों का अकाल ही एकमात्र ऐसा कारण है, जिससे मुझे जैसा अल्पज्ञ भी सम्मान और प्रतिष्ठा प्राप्त कर लेता है ।' किन्तु हमारी दृष्टि में यह केवल उनकी विनम्रता का परिचाचक है।
आप अपनी सफलता का सूत्र यह बताते हैं कि किसी भी कार्य को छोटा मत समझो और जिस समय जो भी कार्य उपस्थित हो पूरी प्रामाणिकता के साथ उसे पूरा करने का प्रयत्न करो।
आपके व्यक्तित्व के निर्माण में अनेक लोगों का महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है । पूज्य बाबाजी पूर्णमल जी म.सा.और इन्द्रमल जी म. सा. ने आपके जीवन में धार्मिक-ज्ञान और संस्कारों के बीज का वपन किया था। पूज्य साध्वीश्री पानकुंवर जी म.सा. को तो आप अपनी संस्कारदायिनी माता ही मानते हैं । आपने डॉ. सी. पी. ब्रह्मों के जीवन से एक अध्यापक में दायित्वबोध एवं शिष्य के प्रति अनुग्रह की भावना कैसी होनी चाहिये, यह सीखा है । पं. सुखलालजी और पं.दलसुखभाई को आप अपना द्रोणाचार्य मानते हैं, जिनसे प्रत्यक्ष में कुछ नहीं सीखा, किन्तु परोक्ष में जो कुछ आप में है, वह सब उन्हीं का दिया हुआ मानते हैं । आपकी चिन्तन और प्रस्तुतीकरण की शैली बहुत कुछ उनसे प्रभावित है । आपने अपने पूज्य पिताजी से व्यावसायिक प्रामाणिकता और स्पष्टवादिता को सीखा यद्यपि आप कहते हैं कि स्पष्टवादिता का जितना साहस पिताजी में था, उतना आज भी मुझमें नहीं है । पत्नी आपके जीवन का यथार्थ है । आप कहते हैं कि यदि उससे यथार्थ को समझने
और जीने की दृष्टि न मिली होती तो मेरे आदर्श भी शायद यथार्थ नहीं बन पाते । सेवा और सहयोग के साथ जीवन के कट्सत्यों को भोगने में जो साहस उसने दिलाया वह उसका सबसे बड़ा योगदान है । आप कहते हैं कि शिष्यों में श्यामनन्दन झा और डॉ.अरुणप्रताप सिंह ने जो निष्ठा एवं समर्पण दिया, वही ऐसा सम्बल है, जिसके कारण शिष्यों के प्रत्युपकार की वृत्ति मुझसे जीवित रह सकी, अन्यथा वर्तमान परिवेश में वह समाप्त हो गई होती । मित्रों में भाई माणकचन्द्र के उपकार का भी आप सदैव स्मरण करते हैं। आप कहते हैं कि उसने अध्ययन के द्वार को पुनः उद्घाटित किया था। समाज सेवा के क्षेत्र में भाई मनोहरलाल और श्री सौभाग्यमलजी जैन वकील सा.आपके सहयोगी एवं मार्गदर्शक रहे हैं । आप यह मानते हैं कि 'मैं जो कुछ भी हूँ वह पूरे समाज की कृति हूँ, उसके पीछे अनगिनत हाथ रहे हैं । मैं किन-किन का स्मरण करूँ अनेक तो ऐसे भी होगें जिन की स्मृति भी आज शेष नहीं है।'
वस्तुत: व्यक्ति अपने आप में कुछ नहीं है, वह देश, काल, परिस्थिति और समाज की निर्मिति है, जो इन सबके अवदान को स्वीकार कर उनके प्रत्युपकार की भावना रखता है, वह महान् बन जाता है, चिरजीवी हो जाता है । अन्यथा अपने ही स्वार्थ एवं अहं में सिमटकर समाप्त हो जाता है ।
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