Book Title: Rushibhashit Sutra
Author(s): Vinaysagar, Sagarmal Jain, Kalanath Shastri, Dineshchandra Sharma
Publisher: Prakrit Bharti Academy
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पुनः बौद्ध संघ में वज्जिपुत्तीय सम्प्रदाय का आविर्भाव इस बात का भी सूचक है कि वज्जीपुत्त बौद्ध परम्परा में एक प्रभावशाली आचार्य रहे हैं। और, इनकी शिष्य सम्पदा भी विपुल रही होगी तभी इनके नाम पर सम्प्रदाय बना। बौद्ध साहित्य से हमें यह भी ज्ञात होता है कि वज्जीपुत्त बुद्ध और महावीर के समकालीन थे। थेरगाथा अट्ठकथा में इन्हें वैशाली के निवासी लिच्छविराजकुमार कहा गया है तथा यह बताया गया है कि बुद्ध से ये इतने प्रभावित हुए कि बौद्ध परम्परा में दीक्षित होकर वैशाली के जंगलों में अपनी साधना प्रारम्भ कर दी। जैन परम्परा में विशेषरूप से ऋषिभाषित में उन्हें स्थान देने का कारण यह भी हो सकता है कि ये भी महावीर की वंश परम्परा अर्थात् लिच्छवि वंश से सम्बन्धित थे।
बौद्ध परम्परा में वज्जिपुत्तीय श्रमण सुविधावादी माने गये हैं। इन्होंने बौद्ध संघ में कुछ सुविधाओं की माँग की थी यथा—भोजन के पश्चात् अल्पाहार करना, शृंग में नमक रखना, भिक्षा के लिये दो बार भी चले जाना, स्वर्ण-रजत मुद्राएँ रखना आदि। वज्जिपुत्तीय सम्प्रदाय के कुछ उपनिकायों का भी उल्लेख बौद्ध साहित्य एवं अभिलेखों से प्राप्त होता है। उपनिकाय निम्न हैं--
1. धर्मोत्तरीय निकाय—इनका उस समय पर्याप्त प्रचार-प्रसार था, किन्तु इनके सिद्धान्तों की हमें कोई जानकारी नहीं है।
2. भद्रयानिक निकाय-इस सम्बन्ध में महावंश, दीपवंश आदि ग्रन्थों में विस्तृत उल्लेख मिलते हैं।
3. छन्नागारिक निकाय—इसका अर्थ है जो भिक्षु छन्नः छाये हए, आगारिक आवास में रहने वाले अर्थात् वृक्ष, मूल, गुफा आदि स्थानों को छोड़कर संघारामों में रहकर साधना करते थे, वे छन्नागारिक कहलाते थे।
__ ऋषिभाषित में उल्लिखित वज्जीपुत्त बौद्ध परम्परा में उल्लिखित वज्जीपुत्त हैं। वे लिच्छवि वंश से सम्बन्धित तथा बुद्ध और महावीर के समकालीन थे तथा बुद्ध के निर्वाण के पश्चात् भी जीवित थे। पुनः ऋषिभाषित में जो इनका उपदेश है, उसकी बौद्ध धर्म दर्शन से कहीं भी असंगति नहीं है।
जहाँ तक वज्जियपुत्त के उपदेशों का प्रश्न है ऋषिभाषित में इनका उपदेश मुख्य रूप से कर्म-सिद्धान्त को स्पष्ट करता है। ये कहते हैं कि बीज और अंकुर की भाँति जन्म-मरण और दःख की परम्परा भी चलती रही है। कर्म के मूल स्रोत के रूप में इसमें मोह को बताया गया है। कर्म सम्बन्धी यह विचारधारा जैन और बौद्ध परम्पराओं में सामान्य रूप से स्वीकृत है। वज्जीपुत्त के इन 42 इसिभासियाई सुत्ताई