Book Title: Ratnakarandak Shravakachar
Author(s): Samantbhadracharya, Mannulal Jain
Publisher: Vitrag Vigyan Swadhyay Mandir Trust Ajmer
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शास्त्राभ्यास की महिमा । हे भव्य हो! शास्त्राभ्यास के अनेक अंग हैं। शब्द या अर्थ का बाँचना या सीखना, सिखाना, उपदेश देना, विचारना, सुनना, प्रश्न करना, समाधान जानना, बारंबार चर्चा करना इत्यादि अनेक अंग हैं, वहाँ जैसे बने तैसे अभ्यास करना, यदि सर्वशास्त्र का अभ्यास न बने तो इस शास्त्र में सुगम या दुर्गम अनेक अर्थों का निरूपण है, वहाँ जिसका बने उसका ही अभ्यास करना; परन्तु अभ्यास में आलसी न होना।
देखो! शास्त्राभ्यास की महिमा, जिसके होने पर परम्परा आत्मानुभव दशा को प्राप्त होता है, मोक्षरूपफल को प्राप्त होता है। यह तो दूर ही रहो, तत्काल ही इतने गुण प्रकट होते हैं - (१) क्रोधादि कषायों की तो मंदता होती है। (२) पंचेन्द्रियों के विषयों में प्रवृत्ति रुकती है। (३) अति चंचल मन भी एकाग्र होता है। (४) हिंसादि पाँच पाप नहीं होते। (५) स्तोक ( अल्प) ज्ञान होने पर भी त्रिलोक के तीनकाल संबंधी चराचर पदार्थों का जानना होता है। (६) हेय-उपादेय की पहचान होती है। (७) आत्मज्ञान सन्मुख होता है अर्थात् ज्ञान आत्मसन्मुख होता है। (८) अधिक-अधिक ज्ञान होने पर आनन्द उत्पन्न होता है। (९) लोक में महिमा-यश विशेष होता है। (१०) सातिशय पुण्य का बंध होता है। सो इत्यादिक गुण शास्त्राभ्यास करने से तत्काल ही उत्पन्न होते हैं; इसलिए शास्त्राभ्यास अवश्य करना।
तथा हे भव्य ! शास्त्राभ्यास करने के समय की प्राप्ति महादुर्लभ हैं; कैसे सो कहते हैं।
एकेन्द्रियादि असंज्ञीपर्यंत जीवों को मन नहीं और नारकी वेदना से पीड़ित तियँच विवेकरहित, देव विषयासक्त; इसलिए मनुष्यों को अनेक सामग्री मिलने पर शास्त्राभ्यास होता है। सो मनुष्यपर्याय की प्राप्ति ही द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव से महादुर्लभ है।
वहाँ द्रव्य से तो लोक में मनुष्यजीव बहुत अल्प हैं। तुच्छ संख्यात-मात्र ही हैं और अन्य जीवों से निगोदिया अनन्त हैं, दूसरे जीव असंख्यात हैं।
तथा क्षेत्र से मनुष्यों का क्षेत्र बहुत स्तोक (थोड़ा ही) अढ़ाई द्वीप मात्र ही है, और अन्य जीवों में एकेन्द्रियों का क्षेत्र सर्व लोक है, दूसरों का कितने ही राजू प्रमाण है। ___ और काल से मनुष्य पर्याय में उत्कृष्ट रहने का काल स्तोक है, कर्मभूमि-अपेक्षा पृथक्त्व कोटिपूर्व मात्र है और अन्य पर्याय में उत्कृष्ट रहने का काल-एकेन्द्रिय में तो असंख्यात पुद्गल-परावर्तनमात्र और अन्यों में संख्यात पल्यमात्र है।
भाव अपेक्षा तीव्र शुभाशुभपने से रहित ऐसे मनुष्यपर्याय के कारणरूप परिणाम होने अतिदुर्लभ हैं। अन्य पर्याय के कारण अशुभरूप या शुभरूप होने सुलभ हैं। अशुभरूप व शुभरूप परिणाम होना दुर्लभ हैं। इस प्रकार शास्त्राभ्यास का कारण जो पर्याप्त कर्मभूमिया मनुष्यपर्याय उसका दुर्लभपना जानना।
प्रस्तावना, सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका
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