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पुरुषार्थ सिद्धि उपाय : आचार्य अमत चंद्र स्वामी पुरुषार्थ देशना : परम पूज्य आचार्य श्री १०८ विशुद्ध सागरजी महाराज Page 41 of 583 ISBN # 81-7628-131-3 -2010:002
निश्चयनय कहेगा यह किसी का द्रव्य नहीं हैं यह अपनी स्वतंत्र सत्ता से युक्त हैं वह पेन जब तुम्हारे हाथ से गुम हो जाता है तो वह ज्ञानी! अध्यात्म विद्याशील कहता है कि पेन अपने चतुष्टय से कहीं गया ही नहीं जेब से चला गया है तो मैं दुखी हो रहा हूँ, मेरा कुछ गया नहीं जब हम द्रव्यदृष्टि से देखते हैं, तो मैं सुखी भी नहीं, दुखी भी नहीं, रंक भी नहीं, राव भी नहीं हूँ मैं चैतन्य द्रव्य मात्र हूँ जब पर्याय दृष्टि से देखते हो तो मैं मनुष्य हूँ, मैं धनी हूँ, मैं दरिद्र हूँ बस यही दरिद्री होने के लक्षण हैं क्योंकि जहाँ रोना प्रारंभ हुआ, वहाँ रोना ही रोना हैं पुनः देखना, मुझे एक स्वर्ण-मुद्रा की प्राप्ति हुई, प्रसन्न हो गयां जबकि वह द्रव्य अपने चतुष्टय में स्वतंत्र है, यह भूतार्थ हैं उसे मैं अपना मान रहा हूँ, यह अभूतार्थ हैं व्यवहार आ गयां वही स्वर्ण की डली कोई उठा ले गया तो यथार्थ बताना, तुम्हारे परिणाम क्या हो गये?
भो ज्ञानी! कामना चित्त को प्रभावित करती है और जब चित्त प्रभावित होता है, तो कर्म बंध प्रारंभ हो जाता हैं एक योगी के सामने स्वर्ण माला चढ़ी, पर उसे खिन्नता या प्रसन्नता नहीं, क्योंकि उसे भूतार्थ दिख रहा था जिसने भूतार्थ को, अभूतार्थ मान लिया, असत्यार्थ को सत्यार्थ मान लिया, उसे हर्षित होना पड़ा और बिलखना भी पड़ां इसलिये, न तो धर्म तीर्थ के नाश के लिये, न लोक- व्यवहार के नाश के लिये, न आगम व्यवस्था के बिगाड़ने के लिये, अपितु अपने स्वचतुष्टय को निर्मल रखने के लिये निश्चय भूतार्थ है, और व्यवहार अभूतार्थ हैं सर्वज्ञदेव ने न्याय करने के लिये नय का कथन किया हैं इसलिये परादृष्टि ही सम्यकद ष्टि है और पर-दृष्टि ही मिथ्यादृष्टि है अहो! आत्मदृष्टि ही परादृष्टि हैं परा याने उत्कृष्टं धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष इन चारों पुरुषार्थ में यदि कोई परा है, तो मोक्ष हैं
भो ज्ञानी! द्रव्य दृष्टि ही आत्म दृष्टि और द्रव्य दृष्टि ही मिथ्या दृष्टिं परंतु द्रव्य तो द्रव्य हैं देखो तो, छह द्रव्य हैं छह द्रव्यों के ही मध्य में सब कुछ हो रहा हैं तीन लोक में छह द्रव्य के आगे कुछ भी नहीं हैं छह द्रव्यों में से जो आत्म-द्रव्य को पकड़े, वह सम्यकदृष्टि है और जो पर-द्रव्य को पकड़े, पुद्गल-द्रव्य को पकड़े, धन-पैसे को पकड़े,वो मिथ्यादृष्टिं इसलिये 'शब्दानाम् अनेकार्था' एक निग्रंथ, योगी जिसकी दृष्टि निर्मल होती है, प्रत्येक अर्थ को निर्मल देखता हैं
भो ज्ञानी! अर्थ, अर्थ हैं अर्थ को अर्थ ही रहने देना, अर्थ को अनर्थ मत कर देनां नयनय हैं वस्तु, वस्तु हैं दृष्टि, दृष्टि हैं दृष्टि वस्तु नहीं परंतु विवाद तब आ जाता है, जब भाषा में तुम्हारे विपरीत भाव मिश्रित हो जाते हैं भाषा में दोष नहीं, चाहे निश्चय की भाषा हो, चाहे व्यवहार की, परंतु भावों की गड़बड़ी भाषा को गड़बड़ कर देती हैं जैसे कि बिल्ली उसी मुख से अपने बच्चे को पकड़ती, तो कैसे लाती है और चूहे को पकड़ती है, तो कैसे लाती है? मुख में दोष नहीं है, दोष उसके भावों में हैं
भो ज्ञानी! भाषा में दोष नहीं हैं बेटा उसी मुख से पिता को बुलाता है, उसी मुख से माता को बुलाता
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