Book Title: Punyasrav Kathakosha
Author(s): Ramchandra Mumukshu, A N Upadhye, Hiralal Jain, Balchandra Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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पुण्यात्रवकथा कोश
[ १-४ :
विचित्र सिंहासने आसितो विलासिनीकृतनृत्यं पश्यन् यदा तदा कश्विद्विद्याधरो गगने गच्छंस्तस्योपरि विमानागते तत्रावतीर्णः । इतरेतरदर्शनेन परस्पर स्नेहं गतौ । तत उचितसंभापणानन्तरमेकासने उपविष्टौ । ततो रत्नशेखरेणोक्तं 'कस्त्वं कस्मादागतोऽसि तव दर्शनेन मम प्रीतिः प्रवर्तते' इति । खेचरो ब्रूते - शृणु हे मित्र, अत्रैव विजयार्धे दक्षिणश्रेण्यां सुरकण्ठपुरेशजयधर्मविनयावत्योः पुत्रोऽहं मेघवाहनः सकलविद्यासनाथः । मम पिता महा राज्यं दत्त्वा दीक्षितः । स्वेच्छाविहारं गच्छन् त्वां दृष्टवानहमिति प्रतिपाद्य तं पृष्टवान् खेचरस्त्वं क इति । रत्नशेखरः कथयति - एतद्रत्नसंचयपुरेशवज्रसेनजयावत्योः तनुजोऽहं' रत्नशेखर नामेति कथितौ सखित्वं गतौ । ततो रत्नशेखरेणोक्तं मेरुजिनालयदर्शने मे वाञ्छा वर्तते इति । इतरेणोक्तं तर्हि कुरु विमानारोहणं यावस्तत्रेति । तेनोक्तं- स्वसाधितविद्यया गन्तुमिच्छामि । ततः खेचरेण मन्त्रो दत्तः, इमं जपेति । तदनु परिजनं विसृज्य तमेवोत्तरसाधकं विधाय यावजपति तावत् पञ्चशतविद्याः समागत्य भणन्ति स्म प्रेषणं प्रयच्छेति । ततो दिव्यविमानमारुह्यार्धतृतीयद्वीपेषु स्थितजिनालयान् पूजयित्वा स्वविषयविजयार्ध वासिसिद्ध कूटमागतो जिनं पूजयित्वा तन्मण्डपे यावदुपविश्य स्थितौ तावत्तत्रं विजयार्घदक्षिणश्रेणिस्थरथनूपुरेशविद्युद्वेगसुखकारिण्योः पुत्री मदनमञ्जूषा स्वविलासिनीसहिता जिनं द्रष्टुं समा
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बैठकर जब वेश्या नृत्यको देख रहा था तब कोई विद्याधर आकाशमार्ग से जाता हुआ उसके ऊपर विमानके आनेपर वहाँ नीचे उतरा । वे दोनों एक दूसरे को देखकर परस्पर में स्नेहको प्राप्त हुए । तब समुचित सम्भाषणके बाद वे दोनों एक आसनपर बैठे । पश्चात् रत्नशेखर ने पूछा- तुम कौन हो और किस कारणसे यहाँ आये हो, तुमको देखकर मुझे प्रीति उत्पन्न हो रही है । विद्याधर बोला सुनो - हे मित्र ! इसी विजयार्धं पर्वतके ऊपर दक्षिण श्रेणिमें सुरकण्ठपुर है । उसका स्वामी
धर्म है । उसकी पत्नीका नाम विनयावती है। इन दोनोंका मैं मेघवाहन नामका पुत्र हूँ जो समस्त विद्याओंका स्वामी है । मेरा पिता मुझे राज्य देकर दीक्षित हो चुका है । मैं स्वेच्छा से विहार करता हुआ जा रहा था कि तुम्हें देखा । इस प्रकार कहकर विद्याधर ने उससे पूछा कि तुम कौन हो । रत्नशेखर बोला- मैं इस रत्नसंचयपुर के अधीश्वर वज्रसेनका रत्नशेखर नामक पुत्र हूँ | मेरी माताका नाम जयावती है। इस प्रकार कहनेपर उन दोनों में मित्रता हो गई । पश्चात् रत्नशेखर ने कहा कि मैं मेरु पर्वत के ऊपर स्थित जिनालयोंके दर्शन करना चाहता हूँ । इसपर मेघवाहन कहा कि तो फिर विमानमें बैठो और चलो वहाँ चलें । उसने कहा कि मैं अपने द्वारा सिद्ध कई विद्या से वहाँ जाना चाहता हूँ । तब विद्याधरने उसे मंत्र दिया और कहा कि इसका जाप करो । तत्पश्चात् वह सेवक समूहको छोड़कर और उसीको उत्तम साधक करके जब तक उसका जाप करता है तब तक पाँच सौ विद्याओंने उपस्थित होकर यह कहा कि हमें आज्ञा दीजिये । तब वे दोनों दिव्य विमानमें बैठकर गये और अढ़ाई द्वीपोंके भीतर स्थित जिनालयों की पूजा करके अपने देशमें स्थित विजयार्ध पर्वतवासी सिद्धकूटके ऊपर आ गये।
वहाँ जिन भगवान्की पूजा करके वे उसके मण्डपमें बठे ही थे कि इतने में वहाँ विजयार्ध पर्वतकी दक्षिण श्रेणिमें स्थित रथनूपुरके राजा विद्युद्वेग और रानी सुखकारिणीकी पुत्री मदन
१. फप्रदेश । २. पविनयवत्योः, श विनयावत्यौः । ३ श दृष्टवान् ऽहमिति । ४. फ ब वज्रसेनतनुजोऽहं श वज्रसेनजयावत्यो तनुजोहं । ५. श कथितो । ६. ब जपेत् । ७. ब ०त्तरं साधकं । ८. फ विजयार्द्ध वा सिद्ध० । ९ प तन्मंडपे यावदुपविश्प स्थितौ तौ द्वो तावत्तत्र, फ यावत्तन्मंडपे उपविश्य स्थिती तावत्तत्र ।
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