Book Title: Prashnottar Vichar
Author(s): Unknown
Publisher: ZZZ Unknown

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Page 16
________________ ( १८ ) जज्ञे इति तृतीय भवः ३ तत्र भवे वर्षलक्षं सर्वदा मासक्षपणेन तपस्तप्त्वा दशमे देवलोके पुष्पोत्तर प्रवर पुंडरीकाभिधाने देवोऽभूदिति चतुर्थ भवः ४ ततो ब्राह्मणकुंडग्रामे ऋषभदत्तस्य ब्राह्मणस्य भार्यायाः देवानंदाऽभिधानायाः कुक्षावुत्पन्न इति पंचम भव: ५ तत्र त्र्यशीतितमे दिवसे क्षत्रियकुंडग्राम नगरे सिद्धार्थ महाराजस्य त्रिशलाभिधानभार्यायाः कुक्षाविन्द्रवचनानुकारिणा हरिणेगमेषिणा नाम्ना देवेन संहृतः तीर्थकरतया जज्ञे इति षष्ठभवः ६ उक्त भवग्रहणं विना नाऽन्यत् षष्ठंभवग्रहणं श्रयते भगवतः इति देवभवग्रहणतया व्याख्यातं इति । अर्थ- देखिये इन उक्त दोनों पाठों में श्रीगणधर महाराज तथा नवांगसूत्रटीकाकार श्रीमभयदेवसूरिजी महाराज ने श्रमण भगवान् महावीर प्रभु तीर्थकर भव ग्रहण करने के पहिले छट्ठे भव में पोट्टिल नाम के राजपुत्र थे, अथवा पोटिल भव से पाँचवें भव में देवानंदा ब्राह्मणी की कुक्षि में उत्पन्न हुए और कहें भव में तीर्थकर भव से त्रिशलारानी की कुक्षि से तीर्थंकर हुए लिखे हैं, याने पोटिल भव १ देवभव २ नंद नामक भव ३ देवभव ४ देवानंदा ब्राह्मणी पुत्र भव, अथवा देवानंदा की कुक्षि में उत्पत्तिरूपभव ५ त्रिशला रानी के पुत्र श्रीवीर तीर्थकर हुए । यह छठवाँ भव है । इन उक्त ६ भवों का ग्रहण किये विना अन्य छठवां भव भगवान् ने ग्रहण किया, सुनने में नहीं आता है । इस लिये छठवाँ तीर्थकर भव ग्रहणता से त्रिशलामाता की कुक्षि में भगवान् प्रये, सो कल्याणक रूप ही है । तुम लोग शास्त्रकारों की अपेक्षा को न समझ कर एकांत प्राग्रह से उसको नीखगोत्रविपाकरूप अकल्याणकरूप अत्यंतनिंदनीयरूप कहते हो सो यह सूत्रविरुद्ध महामिथ्या नवीन प्ररुपया है । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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