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( २४ ) धर्मकृत्य नहीं करके उन पर्वतिथियों को पापकृत्यों से विराधना तथा उन, तिथियों में पौषधादि धर्मकृत्य करने निषेधने, यह भी ठीक नहीं है और अमावस या पूनम की वृद्धि होने से चतुर्दशी पर्वतिथि में पौषधादि धर्मकृत्य नहीं करके उस १४ पर्व तिथि में पौषधादि धर्मकृत्य निषेधने और उस १४ पर्वतिथि को झूठी कल्पना से दूसरी तेरस मान कर पापकृत्यों से विराधना यह सर्वथा अनुचित है । क्योंकि चतुर्दशी
आदि पर्वदिनों में तथा प्रतिपदा आदि कल्याणक पर्व की तिथियों में और उपधान में तथा श्रीपर्युषणापर्व में पौषध ग्रहण करना शास्त्रों में लिखा है । प्रमाण श्रीखरतरगच्छनायक श्रीजिनवल्लभसूरिजी महाराज कृत पौषधविधि प्रकरण ग्रंथ में यथा
चउदसि अहमि पज्जोसवणादि पव्वदिवसेसु । साहुसगासे पोसहसालाए घरे चेइए कुज्जा ॥१॥
अर्थ-चतुर्दशी अष्टमी पूर्णिमा अमावास्या पर्युषणा प्रादि शब्द से कल्याणक पर्व दिवसों में साधु के पास पौषधशाला में, घर में, चैत्य में श्रावक पौषध ग्रहण करे ॥१॥
श्रीधर्मविधिप्रकरणवृत्ति में भी पाठ । यथासामाइय प्पमाणं, करेइ देसावगासियं णिचं । पव्वे पोसह गहणं, अतिहिविभागं च मुणिजोगे ।
अर्थ-कामदेव श्रावक सामायिक व्रत का प्रमाण और देशावगाशिक यह दोनों व्रत नित्य करता है और पर्वदिनों में पौषध व्रत ग्रहण करे, अतिथिसंविभाग व्रत मुनि का योग होने पर करे।
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