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( २८ ) प्रमाण श्रीशीलांगाचार्य महाराज कृत श्रीसूयगडांगसूत्र की टीका के दूसरे श्रुतस्कंध संबंधी सातवें अध्ययन में सूत्र तथा टीका पाठ । यथा
तत्थणं नालंदाए बाहिरिआए लेपनामगाहावई होत्था जाव अहिगयजीवाऽजीवे जाव चउद्दसऽठमुदिठपुराणमासीणीसु पड़िपुगणं पोसहमणुपालेमाणे विहरति (टीका) चतुर्दश्यऽष्टम्यादितिथिषु उद्दिष्टासु महाकल्याणकसंबंधितया पुण्यतिथित्वेन प्रख्यातासु । तथा पौर्णमासीषु च तिसृष्वऽपि चतुमासिकतिथिषु इत्यर्थः एवं भूतेषु धर्मदिवसेषु सुष्ट अतिशयेन प्रतिपूर्णो यः पौषधो व्रताऽभिग्रहविशेषस्तत्र प्रतिपूर्ण आहारशरीरसत्काराऽब्रह्मचर्याऽव्यापाररूपं पौषधमऽनुपालयन् श्रावकधर्ममाऽऽचरति इति--
अर्थ-राजगृही नगरी में नालंदा पहाड़ा के बाहर लेपनाम का गाथापति था । जाने हैं जीव अजीव पदार्थ जिसने ऐसा वह श्रावक जाव चतुर्दशी अष्टमी श्रादि पर्वतिथियों में और महा-कल्याणक संबंधो पुण्य तिथियों में तथा चातुर्मासिक तिथियों में अर्थात् इस प्रकार के धर्म के दिनों में अतिशय करके प्रतिपूर्ण जो पौषध व्रत उसमें प्राहार का त्याग १ शरीर सत्कार का त्याग २ अब्रह्मचर्य का त्याग ३ व्यापार त्याग ४ रूप प्रतिपूर्ण पौषध व्रत को पालता हुआ श्रावकधर्म को प्राचरता है। श्रीसूयगडांगसूत्र के १३ वें अध्ययन में भी पाठ । यथा
अत्थेगइया समणोवासगा भवंति तेसिं च एवं वुत्तपुव्वं भवइ नो खलु वयं संचाएमो मुंडे भवित्ता अगाराम्रो
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