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( ४५ ) संपूर्ण पर्वतिथिको झूठी कल्पना से दूसरी सप्तमी मानकर कुशील नीलोतरी का छेदन भेदन आदि पापकृत्यों से विराधते हैं और ब्रह्मचर्य तथा पौषध और नीलोतरी का त्याग इत्यादि धर्मकृत्यों से उस ६० घड़ी की संपूर्ण पर्वतिथि को पालना निषेधते हैं, इस से तपगच्छवाले पाप के और पापोपदेश के भागी होते हैं या नहीं?
[प्रश्न ] तपगच्छवाले भाद्रपद शुक्ल पहिली पंचमी पर्वतिथि को पौषध तथा सांवत्सरिक प्रतिक्रमणादि धर्मकृत्यों से मानते हैं. और चतुर्दशी पर्वतिथि को पापकृत्यों से विराध कर पहिली अमावास्या में या पहिली पूर्णिमा में पौषध तथा पाक्षिक या चातुर्मासिक प्रतिक्रमणादि धर्मकृत्य करते हैं तो इसी तरह अन्य मास संबंधी द्वितीया, पंचमी, अष्टमी आदि पहिली पर्वतिथियों को कल्याणक संबंधी पौषधोपवास करना तथा ब्रह्मचर्य पालना और नीलोतरी नहीं खाना, रात्रि भोजन नहीं करना इत्यादि धर्मकृत्यों से आराधना उचित है; तथापि तपगच्छवाले उन द्वितीया पंचमी आदि पहिली पर्वतिथियों को कुशील सेवन, नीलोतरी का भक्षण इत्यादि पापकृत्यों के द्वारा विराधते हैं और उन द्वितीया, पंचमी आदि पहिली पर्वतिथियों को कल्याणक संबंधी पौषध करना कुशील और नीलोतरी का त्याग इत्यादि नियम द्वारा पालना तपगच्छवाले निषेध करते हैं
और लिखते भी हैं कि-"दो तिथियाँ होवें तव संपूर्ण ऐसा समझ कर पहिली तिथि को न अंगीकार करे । दो अष्टमी हो तो दो सप्तमी करना, तथा दो चतुर्दशी हो तो दो तेरस करना।" इस प्रकार सूर्योदययुक्त ६० घड़ी की पहिली संपूर्ण पर्वतिथि को अपर्वतिथि करना बतला कर पापकृत्य करवाते हैं, इससे पाप के और पापोपदेश के भागी सिद्ध होते हैं या नहीं?
क्योंकि श्रीदशाश्रुतस्कंधभाष्यकार महाराजने भी लिखा है किShree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
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