Book Title: Prashnottar Vichar
Author(s): Unknown
Publisher: ZZZ Unknown

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Page 80
________________ ( ८२ ) येन खरतरबिरुदं सहस्रे समानामऽशीत्यधिके प्रादायि न वा ? अर्थात् अणहिलपुर पाटण में ( सुविहित ) शुद्ध क्रियावंत साधुओं को नहीं रहने देने के लिये मिथ्या अभिमानी श्रीजिनमंदिरों में रहनेवाले चैत्यवासी यतियों का बड़ा भारी व्यर्थ कदाग्रह ( ज़ोर ) को हटाने से खरेतरे याने खरतरविरुद्ध श्रीजिनेश्वर सुरिजी ( नवांगटीकाकार श्रीमभयदेवसूरिजी के गुरु ) महाराज को संवत् १०८० में दुर्लभराजा तथा भीमराजा के समय में मिला या नहीं ? [ उत्तर ] इस विषय का निर्णय अनेक ग्रंथों के प्रमाणों से श्रीप्रश्नोत्तरमंजरी ग्रंथ में हमने लिख दिखलाया है अतः उस ग्रंथ में देख लेना । और तपगच्छवालों को इस विषय में शंका रखनी सर्वथा अनुचित है । क्योंकि इस अनाभोग को दूर करने के लिये तपगच्छनायक श्री सोमसुंदरसूरिजी के शिष्य महोपाध्याय श्री चारित्ररत्नगशिजी के शिष्य पंडित श्रीमत्सोमधर्मगणिजी महाराज ने स्वविरचित उपदेशसप्ततिका नामक महाप्रमाणिक ग्रंथ में लिखा है कि — पुरा श्री पत्तने राज्यं, कुर्वाणे भीमभूपतौ । अभूवन् भूतलाख्याताः, श्रीजिनेश्वरसूरयः ॥ १ ॥ सूरयोऽभयदेवाख्या, स्तेषां पट्टे दिदीपिरे । येभ्यः प्रतिष्ठामापन्नो, गच्छ: खरतराऽभिधः ॥ २ ॥ भावार्थ - ( पुरा ). पूर्वकाल में याने संवत् १०८० में अणहिलपुर पाटण में दुर्लभ तथा भीमराजा के राज्य के समय में चैत्यवासी यतियों का सुविहित मुनियों को शहर में नहीं रहने देने का बड़ा भारी व्यर्थ कदाग्र (जोड़) को हटाने से और प्रत्यंत Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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