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( ८१ ) उनके गच्छ को त्यागा, तो फिर पट्टावली में उन गुर्वादिकों को क्यों मानते हो?
६ [प्रश्न ] श्रीसत्यविजयजी ने और श्रीयशोविजयजी ने तथा श्रीनेमसागरजी ने वा उनके गुरु ने यतिपने के शिथिलाचार को त्याग कर क्रिया उद्धार किया तो योग १, बड़ी दीक्षा २, उपसंपद ३, पंन्यासपद ४, उपाध्यायपद ५ किस दूसरे शुद्धसंयमी गुरु के पास ग्रहण किया और किस किस दूसरे शुद्धसंयमी गुरु को धारण करके उनके शिष्य हुए?
७ [ प्रश्न ] जिसके गच्छ में पूर्वकाल में दो, तीन, चार पीढ़ी पर कई जनों ने क्रिया उद्धार किया है और उनके शिप्य प्रशिष्यादि साधु साध्वी वर्तमान काल में बहुत विचरते हुए नज़र आते हैं उनके गच्छ में कोई वैराग्य भाव से यतिपने के शिथिलाचार को त्याग कर क्रिया उद्धार करके साधु की रीति से विचरता है, उसको दूसरे के पास उपसंपद लेने की और दूसरे का शिष्य होने की आवश्यकता नहीं है, ऐसी शास्त्रकारों की
आज्ञा मानते हो तो उन क्रिया उद्धार कारक सुसाधु की निरर्थक निंदा करनेवाले और बालजीवों को भरमानेवाले, शास्त्रविरुद्धवादी वा द्वेषी दुर्गति के भाजन हो या नहीं ?
इन उपर्युक्त ७ प्रश्नों के ७ उत्तर तपगच्छ के श्रीमानंदसागरजी स्पष्ट (खुलासे के साथ) अलग अलग लिख के छापे द्वारा प्रकाशित करें । इत्यलं किंबहुना ?
* पाँचवाँ प्रश्न * तपगच्छ के श्रीश्रानंदसागरजी ने स्वप्रतिज्ञापत्र में लिखा है कि-श्रीजिनेश्वरमूरये दुर्लभेन राजा पत्तने त्यवासिविन
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