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( ९२ ) निसेज्जं वा मग्गति अह घरे तो से उवग्गहिग्रं रयहरणं अत्थितस्स असति वत्थस्स अंतेणं पमज्जइ पच्छा इरियावाहियाए पडिक्कमति पच्छा आलोएत्ता वंदति आयरियाई ।
भावार्थ-अपने घर में सामायिक ग्रहण की हो वह श्रावक सुमति गुप्ति आदि उक्त विधि से साधु के पास जावे, विविध साधु को नमस्कार करके पीछे साधु साक्षिक सामायिक करें याने वह श्रावक फिर करेमि भंते सामायिकदंडक उच्चरे ( जो चैत्य हों तो प्रथम चैत्य वंदन करे ) साधु के पास रजोहरण वा प्रासन माँगे अथ घर में सामायिक करे तो अपना रक्खा हुआ रजोहरण ( चरवला ) हो और वह नहीं हो तो वस्त्र के अंत से प्रमार्जन करे । पीछे ईरियावही पडिकमे पीछे आलोवे याने सात लाख पृथ्वीकाय आदि बोल के प्राचार्य आदि को वंदना करे। यह श्रीअावश्यकचूर्णि में साधुसाक्षिसे फिर सामायिक दंडकउच्चरे । जो चैत्य हों तो प्रथम चैत्यवंदन करे पीछे ईरियावही करे। इसमें चैत्यवंदन समाचारि विशेष से नानात्व मालूम होता है। इस नानात्व में भी सामायिक दंडक उच्चरणे के पहिली ईरियावही करना नहीं लिखा है किंतु सामायिक दंडक उच्चरणे के पीछे ईरियावही करना लिखा है तो यह श्रीआवश्यकसूत्र चूर्णिकार तथा टीकाकार महाराजों के वचन तपगच्छवालों को मान्य हैं या नहीं?
५ [प्रश्न ] यह है कि श्रीपंचाशकटीका में श्रावक के १२ व्रतों में नवमा सामायिक व्रत की विधि में श्रीखरतरगच्छनायक नवांगटीकाकार श्रीमअभयदेवसरिजी महाराज ने लिखा है कि
अनेन विधिना गत्वा त्रिविधेन साधून् नत्वा सामायिक करोति करेमि भंते सामाइयं सावजं जोगं पचल्खामि जाव
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